विज्ञान भैरव तंत्र के सूत्र
विज्ञान भैरव तंत्र के सूत्र
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माता पार्वती के यह प्रश्न पूछने पर की ” ईश्वर कौन है” और “क्या है ?” भगवन शंकर उन्हें सीधे उत्तर न देके निम्नलिखित विधियां बताते है, जोकि ११२ है। किसी न किसी रूप में, सभी ग्रन्थ, धर्मो में इन्ही ११२ विधियों का प्रयोग है । मन के रूपांतरण की श्रेष्ठ विधियों को मानव मात्र के कल्याण के लिए भगवान् शिव ने माता पार्वती के माध्यम से प्रकाशित किया . इन विधियों के माध्यम से पुराने कर्मों की सीमाओं के बंधन को शिथिल किया जा सकता है. इन विधियों के महत्त्व को जानने के लिए बुद्धि के प्रयोग की अपेक्षा अभ्यास अधिक महत्वपूर्ण है . इसका कारण यह है कि जब तक बुद्धि को मन से स्वतंत्र नहीं किया जाता वह स्वतंत्र रूप से सही निर्णय नहीं ले सकती. इसलिए माता पार्वती के इश्वर सम्बन्धी प्रश्न पूछने पर प्रभु शिव प्रश्न का सीधे उत्तर ना देकर वह क्रियाएं बताते है, जिनका अभ्यास कर इश्वर को अनुभव किया जा सकता है.
तंत्र हमारे अस्तित्व से जुड़ी हर चीज का उपयोग कर उससे पार होने में सहायता करता है चाहे वह कामना, भय, क्रोध , नींद, कल्पना , श्वास अथवा छींक जैसी शारीरिक क्रिया ही क्यों ना हो . और हर भावना अथवा क्रिया में महत्वपूर्ण है सजग रहना . सजगता ही चेतना की गहराई को नापने का महत्वपूर्ण साधन है. जब यह साधन साध जाता है तो आत्म ज्ञान स्वयं प्रकाशित हो जाता है . जागृति के लिए महायोगी शिव द्वारा कथित ११२ विधियां इस प्रकार है :-
इस विडियो में विज्ञान भैरव पुस्तक की 112 धारणाओं को हिंदी में सिर्फ बोल कर बताया गया है। विज्ञान भैरव तंत्र की 112 धारणाओं को 30 भागों में विभाजित किया गया है। इनमें कर्म मार्ग के लिए 8 भागों में 31 धारणा, भाव मार्ग के लिए 10 भागों में 36 धारणा, और ज्ञान मार्ग के लिए 12 भागों में 45 धारणा विभाजित की गई हैं। आइए अब हर भाग की धारणा को संस्कृत और हिंदी में देखते हैं।
कर्म मार्ग
भाग 1: कर्म मार्ग, सांस की धारणा
इस भाग में कुल 5 धारणाएं हैं।
- धारणा 1: भैरव कहते हैं, ऊर्जा के बनने और बिखरने के स्वभाव से ही बाहर आता हुआ प्राण, स्वांस और अंदर जाता हुआ जीव स्वांस निरंतर चलता रहता है। दोनों स्वांस के उत्पत्ति बिंदु पर भैरव की शक्ति की भावना करने पर उसका भैरव स्वरूप प्रकट होता है।
- धारणा 2: अंदर आती हुई स्वांस अंदर आने के बाद और बाहर जाती हुई स्वांस बाहर जाने के बाद एक क्षण के लिए विलीन हो जाती है। उस मध्य स्थिति का विकास करने पर चेतना का भैरव स्वरूप प्रकाशित हो जाता है।
- धारणा 3: स्वांस रूपी प्राण शक्ति और जीव शक्ति न बाहर जाए न अंदर आए, उस मध्य स्थिति को विकसित करने पर साधक अपने भैरव स्वरूप को पहचान लेता है।
- धारणा 4: बाह्य कुम्भक और अंतः कुम्भक की मध्य स्थिति का विकास करने पर प्राण और अपान शांत होने पर चंचलता शांत होकर चेतना का शांत स्वरूप प्रकाशित होता है।
- धारणा 43: प्राण और अपान वायुओं के आने-जाने के सभी द्वार बंद करके उसकी गति रोकने पर शरीर में चींटी चलने जैसा प्राण के ऊपर उठने का अनुभव होता है। इससे चित परम आनंद से भर जाता है।
भाग 2: कर्म मार्ग, चक्रों में ऊर्जा की धारणा
इस भाग में कुल 4 धारणाएं हैं।
- धारणा 5: मूलाधार से प्राण शक्ति सुशुम्ना या मध्यम मार्ग से ब्रह्म रंध्र तक जाते-जाते अत्यंत सूक्ष्म होकर प्रकाश में विलीन हो जाती है। ऐसा चिंतन करने पर भैरव स्वरूप का उदय होता है।
- धारणा 6: बिजली सी चमकने वाली शक्ति हर एक चक्र को पार करती हुई ब्रह्म रंध्र से उठती है और महाभैरव स्वरूप में प्रकाशित होती है। वैसा भाव करने पर महाभैरव स्वरूप प्रकट होता है।
- धारणा 8: ध्यान जब हृदय को पार करता हुआ दो भौहों के बीच में से ऊपर की ओर निर्विचार स्थिति में पहुंचता है, तब सर्वव्यापक परमात्मा में समाविष्ट जाता है।
- धारणा 31: मोटा शरीर सूक्ष्म होते हुए दुबला होता जाता है और प्राण शक्ति मध्यमा में प्रविष्ट होती है। ऐसी धारणा करने पर साधक अपनी स्वतंत्र स्थिति को प्राप्त करता है।
भाग 3: कर्म मार्ग, शरीर में ऊर्जा या प्रकाश की धारणा
इस भाग में कुल 5 धारणाएं हैं।
- धारणा 7: शरीर के अंदर 12 स्थानों पर स्थूल, सूक्ष्म और चेतन स्थिति का ध्यान करने पर साधक स्वयं शिव बन जाता है।
- धारणा 11: कपाल में स्वयं प्रकाश ज्योति की धारणा करने पर मन दृढ़ और स्थिर हो जाता है तथा लक्ष्य की प्राप्ति होती है।
- धारणा 13: उंगलियों से कान और आंखों को बंद करने से दो आंखों के बीच भूमध्य में प्रकाश सिंधु दिखने लगता है। उस प्रकाश में ध्यान लगाने से परम स्थिति प्राप्त होती है।
- धारणा 14: उंगलियों से आंखों को दबाने पर सुख जैसी आकृति चमक उठती है। उसमें से किसी एक पर ध्यान करने पर विकल्प शांत होकर एक्य बुद्धि होती है।
- धारणा 26: ऊर्जा को शरीर में चारों तरफ से मध्यमा में लाने की भावना करके वासनाओं का क्षय करके एकाग्रता दृढ़ता से बढ़ती जाती है।
भाग 4: कर्म मार्ग, ध्वनि की धारणा
इस भाग में कुल 5 धारणाएं हैं।
- धारणा 15: शरीर के अंदर उठने वाले अनाहत नाद पर ध्यान करने से शब्द ब्रह्म को जानकर उसमें निष्णात होकर परम ब्रह्म को जान लेता है।
- धारणा 16: स्तुति करने के बीज मंत्र जैसे ‘ओम’, ‘गं’, ‘ह्रीं’ का प्लुत में उच्चारण करके और उच्चारण के विराम में शून्य का भाव करने पर साधक भैरव स्वरूप को जानता है।
- धारणा 17: वर्णमाला के किसी भी वर्ण को उच्चारण करने से पहले या उच्चारण के विराम में शून्य की भावना करने पर साधक शून्याकार होकर भैरव स्वरूप हो जाता है।
- धारणा 18: किसी लयबद्ध ध्वनि में आरोह और अवरोह की लय के साथ चित्त को लयबद्ध करने पर साधक परम आकाश शरीर हो जाता है।
- धारणा 19: पिण्ड मंत्रों के स्थूल वर्णों का क्रम से उच्चारण करते हुए बिंदु, अर्धचंद्र, नाद आदि की भावना करने पर साधक स्वयं शिव बन जाता है।
भाग 5: कर्म मार्ग, एकाग्रता की धारणा
इस भाग में कुल 5 धारणाएं हैं।
- धारणा 51: निद्रा आने के ठीक पहले अर्धनिद्रा अवस्था में दिखने वाली वस्तुएं स्पष्ट नहीं होतीं। वैसे ही जागते हुए विषयों को न देखने का अभ्यास करने पर चेतना प्रकाशित होती है।
- धारणा 52: सूर्य की किरणों, चंद्रमा की चांदनी या दीपक के प्रकाश से प्रकाशित स्थान पर दृष्टि को स्थिर करने पर स्व आत्मा स्वरूप प्रकाशित होता है।
- धारणा 56: किसी स्थूल वस्तु पर बिना पलक झपकाए एकटक देखने से बाह्य विषयों की चिंता से मुक्त होकर साधक परम एकता स्थापित करता है।
- धारणा 76: काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य की वृत्तियों में से किसी एक प्रधान वृत्ति पर धारणा को स्थिर कर अन्य वृत्तियों को शांत कर देने पर बुद्धि एकाग्र हो जाती है एवं बोध स्वरूप प्रकट होता है।
- धारणा 88: नेत्रों को विषयों से समेटकर अंतरात्मा पर स्थिर करने से कैवल्य का अनुभव होता है।
भाग 6: कर्म मार्ग, मुद्रा विज्ञान की धारणा
इस भाग में कुल 2 धारणाएं हैं।
- धारणा 53: करंकिणि, क्रोधना, भैरवी, लेलीहाना और खेचरी मुद्राओं का अभ्यास करने पर साधक आत्मा के प्रकाश में लीन हो जाता है।
- धारणा 57: तालु से जुबान को उल्टा करके खेचरी मुद्रा में मन को स्थिर कर हकार का उच्चार करने पर साधक शांत अवस्था में लीन हो जाता है।
भाग 7: कर्म मार्ग, शारीरिक क्रिया की धारणा
इस भाग में कुल 3 धारणाएं हैं।
- धारणा 55: दोनों हाथों की उंगलियों को एक दूसरे में मिलाकर गोद में रखकर सुखासन में बैठने पर विश्रांति का अनुभव होता है। उस पर चित्त एकाग्र करने से आत्मबोध प्रकट हो जाता है।
- धारणा 59: हे देवी! चलते हुए वाहन में देह एक लय में हिलती है। उसका अभ्यास करने से चित्त को लीन करने पर दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है।
- धारणा 64: स्वाभाविक रूप से या प्रयत्नपूर्वक इंद्रियों का बाह्य विषयों से संपर्क छूट जाने पर जो खालीपन होता है, उस शून्य पर चित्त स्थिर करने से चैतन्य आत्मा प्रकाशित होती है।
भाग 8: कर्म मार्ग, पीड़ा या हठ योग की धारणा
इस भाग में कुल 2 धारणाएँ हैं:
- धारणा 68: कोई तीक्ष्ण वस्तु चुभने की पीड़ा या किसी भी पीड़ा में सहने की शक्ति पर जीत पाने से अपने निर्मल स्वरूप को जान लेता है।
- धारणा 86: गोल-गोल घूमते रहने पर शरीर अपने आप गिर जाता है और एक विचित्र शांति का अनुभव होता है। निर्विकल्प अवस्था में धारणा को स्थिर करने पर परम निर्विकल्प, स्व आत्मा स्वरूप की अभिव्यक्ति होती है।
भाव मार्ग
भाग 9: भाव मार्ग, बाह्य, शून्य भाव की धारणा
इस भाग में कुल 4 धारणाएँ हैं:
- धारणा 9: ५ इंद्रियों की वजह से मोर के पंख जैसा दिखने वाला जगत शून्य स्वरूप है। ऐसा भाव करने पर शून्य में प्रवेश होता है।
- धारणा 34: हे महादेवी, ऐसा विचार करना चाहिए कि सारा जगत शून्यवत यानी कुछ भी नहीं है। उसमें मन को लीन करने पर पूर्व कल्पित रूप विलीन हो जाता है।
- धारणा 35: खाली बर्तन में अंदर के आकाश में देखकर दीवारों को भूलकर मेरा मन शून्य में एक हो गया है। ऐसी धारणा करने पर स्वयं ब्रह्म बन जाता है।
- धारणा 36: निर्जन प्रदेश में अपनी दृष्टि को स्थिर करने का अभ्यास करने पर दृष्टि में शून्यता सामान्य लगती है और महाप्रकाश का आविर्भाव होता है।
भाग 10: भाव मार्ग, आंतरिक शून्य भाव की धारणा
इस भाग में कुल 5 धारणाएँ हैं:
- धारणा 20: अपने शरीर और सर्व दिशाओं में एक साथ शून्य का भाव करने पर मन निर्विकल्प होकर यथार्थ शक्ति का बोध होने लगता है।
- धारणा 21: पुष्ट शून्य से मूल शून्य यानी शरीर, मन और आत्मा तीनों में जो एक साथ शून्य की भावना करता है, उसे निर्विकल्प, जीव, स्वरूप की अभिव्यक्ति हो सकती है।
- धारणा 22: शून्यता की भावना करने पर अपने शरीर में एक क्षण के लिए भी शून्यता हो जाने पर विकल्प व्यापार से ऊपर उठकर निर्विकल्प स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है।
- धारणा 23: अपने देह के अंदर सभी द्रव्यों को शून्य रूप में भावना करने पर प्रकाश से भर जाता है।
- धारणा 24: शरीर के भीतर कुछ भी सार नहीं है। ऐसा ध्यान करते-करते परम तत्व का साक्षात्कार हो जाता है।
भाग 11: भाव मार्ग, भाव, शून्य की धारणा
इस भाग में कुल 1 धारणा है:
- धारणा 37: दो भावों के बीच में शून्य को पकड़कर चित्त को लीन करने पर परम तत्व प्रकाशित होता है।
भाग 12: भाव मार्ग, शरीर नष्ट होने का भाव करने की धारणा
इस भाग में कुल 2 धारणाएँ हैं:
- धारणा 28: कालपद यानी दाहिने पैर के अंगूठे से उठती हुई कालाग्नि मेरे पूरे शरीर को जला देती है। ऐसी भावना करने पर सभी दोषों से मुक्त होकर अपने शांत स्वरूप को पा लेता है।
- धारणा 29: कालपद यानी दाहिने पैर के अंगूठे से उठती हुई कालाग्नि देह के अंदर और बाहर पूरे जगत को जला देती है। ऐसी धारणा करने पर निर्विकल्प होकर परम पुरुषार्थ आविर्भूत होता है।
भाग 13: भाव मार्ग, सर्वमय एकता का भाव करने की धारणा
इस भाग में कुल 7 धारणाएँ हैं:
- धारणा 10: अपने शरीर, दूसरे के शरीर और सभी वस्तुओं में वही प्राण व्याप्त है। ऐसा भाव करने पर परम पद में प्रतिष्ठित होता है।
- धारणा 3: अपने देह और सारे जगत में जो पदार्थ हैं, वे अपने-अपने तत्वों में विलीन हो जाते हैं। ऐसी धारणा करने पर चेतना प्रकाशित हो उठती है।
- धारणा 40: सारे जगत और अपनी देह अपने भीतर आनंद से परिपूर्ण हैं। ऐसी भावना करने पर आनंदमय अवस्था में प्रविष्ट होता है।
- धारणा 41: अंतर और बाह्य वायुओं के मिलने की भावना करने पर समस्त दृष्टि यानी सर्वत्र समान दृष्टि का विकास हो जाता है।
- धारणा ६०: यह सारा जगत आकाश के रूप में अथवा अंधकार के रूप में हृदय, भ्रूमध्य आदि प्रमुख स्थानों में विद्यमान है। ऐसी भावना करने पर भैरव स्वरूप में समाविष्ट हो जाता है।
- धारणा 67: विश्वव्यापी आत्म स्वरूप में धारणा को स्थिर कर देने पर चित्त शक्ति बाह्य आलंबनों से मुक्त होकर अपने स्व स्वरूप को दिखा देती है।
- धारणा 75: छोटे-बड़े सभी प्राणियों में चैतन्य ब्रह्म ही है। ऐसी भावना को भरने पर संसार को जीत लेता है।
भाग 14: भाव मार्ग, अलग-अलग भाव करने की धारणा
इस भाग में कुल 5 धारणाएं हैं:
- धारणा 38: किसी अद्भुत वस्तु को देखकर चित्त की उत्साहित अवस्था में प्रवेश करने पर विश्रांति की भावना विकसित होती है।
- धारणा 47: लंबे समय के बाद मित्रों से मिलने पर आनंद की अनुभूति होती है। उस अवस्था की निरंतर धारणा करके आनंद में विश्राम प्राप्त किया जा सकता है।
- धारणा 48: गहरी भूख के बाद भोजन मिलना या गहरी प्यास के बाद शीतल जल मिलने पर संतोष की अनुभूति होती है। ऐसे अनुभवों में चित्त को एकाग्र करने से परम आनंद की प्राप्ति होती है।
- धारणा 49: गीत, रूप, स्वाद, स्पर्श, सुगंध जैसे अनुभवों में एक क्षण के लिए सभी चिंताओं को छोड़कर एकाग्र होने से चित्त की स्थिति के कारण अद्भुत शक्ति का संचार होता है।
- धारणा 50: जिस-जिस विषय में मन रमता हो, वहां उसे स्थिर करके यह मेरा ही आनंद है, ऐसा भाव करने पर परम आनंद स्वरूप प्रकट होता है।
भाग 15: भाव मार्ग, यौन भाव की धारणा
इस भाग में कुल 2 धारणाएं हैं:
- धारणा 45: स्त्री के सहवास से सुख में आनंद प्राप्त होता है। वह आनंद मेरे अंदर से ही आता है और स्त्री का सहवास सिर्फ उसे अभिव्यक्त करता है। यह भावना करने पर ब्रह्म तत्व के आनंद में समाविष्ट होता है।
- धारणा 46: हे राजकुमारी, स्त्री के स्पर्श या आलिंगन का सिर्फ विचार करने पर, स्त्री के न होते हुए भी आनंद आता है। इसलिए यह भाव करने से कि आनंद की स्थिति मेरे ही अंदर है, परम आनंद होता है।
भाग 16: भाव मार्ग, स्पर्श का भाव करने की धारणा
इस भाग में कुल 2 धारणाएं हैं:
- धारणा 54: कोमल आसन पर आराम से बैठने से कुछ क्षण के लिए परम विश्राम की अनुभूति होती है। उस पर चित्त लगाकर बढ़ते जाने से बुद्धि का प्रकाश फैल जाता है।
- धारणा 58: कोमल आसन पर सोने से मिलने वाले आनंद में मैं देह से अलग हूं। इस भावना का अभ्यास करने पर वासनाएं शांत हो जाती हैं।
भाग 17: भाव मार्ग, डर का भाव करने की धारणा
इस भाग में कुल 5 धारणाएं हैं:
- धारणा 62: काले बादलों से भरी रात्रि में खुली आंखों से तिमिर (अत्यंत भयंकर स्वरूप) भी कृष्ण पक्ष ही है। ऐसी भावना करने पर सांसारिक भय शांत हो जाता है।
- धारणा 63: आंखें बंद करके काली, घनी, अंधियारी रात भी कृष्ण पक्ष ही है। ऐसी भावना करने पर प्रकाश में भैरव स्वरूप की प्राप्ति होती है।
- धारणा 89: गहरे कुएं के पास खड़े होकर नीचे देखने पर अज्ञात भय लगता है। उस भय पर चित्त लगाने से निर्विकल्प दशा में प्रवेश कर जीव का शांत स्वरूप प्रकट होता है।
- धारणा 90: जहां-जहां सुखद विषयों में मन का प्रसार होता है, वहां-वहां शिव (विनाश अवस्था) विद्यमान हैं। उस भावना के अभ्यास से आत्मा प्रकाशित हो जाती है।
- धारणा 92: छींक आने के बाद अथवा भय, शोक आदि भावों के मिट जाने पर एक क्षण के लिए ब्रह्म आनंद का अनुभव होता है। उस आनंद की धारणा का अभ्यास करने पर ब्रह्म सत्ता को जान पाता है।
भाग 18: भाव मार्ग, भक्ति करने की धारणा
इस भाग में कुल 3 धारणाएं हैं:
- धारणा 95: सब कुछ भूलकर शांत भाव से निरंतर ईश्वर के चिंतन में लगा रहने वाले भक्त की भाव दशा (साकार शक्ति) में लीन होने वाला भक्त शिवमय हो जाता है।
- धारणा 96: किसी एक वस्तु, जिसमें चित्त स्वरूप दिख गया हो, उसका सहारा लेकर अन्य वस्तुओं में शून्य की भावना करने पर भेद भ्रम शांत हो जाता है।
- धारणा 100: अनुकूल-प्रतिकूल वेदनीय पदार्थों में राग-द्वेष की भावना न करने पर अंतःकरण में शुद्ध ब्रह्म प्रकाशित हो उठता है।
ज्ञान मार्ग
भाग 19: ज्ञान मार्ग, सुषुम्ना या मध्यम मार्ग का ज्ञान
इस भाग में कुल 4 धारणाएं हैं:
- धारणा 12: मध्य मार्ग की सूक्ष्मता पर ध्यान करने पर मन विलीन हो जाता है और सदियों के चक्कर में न पड़कर प्रकाशमय प्रबुद्ध स्वरूप हो जाता है।
- धारणा 25: प्राण और अपान के मध्य में भावना के बल से जो बाहरी विषयों को छोड़कर मन को लीन कर लेता है, वह सारे विश्व को जान लेता है।
- धारणा 27: जिस-जिस विषय में मन को लगाया जा सकता है, उसी प्रकार की मन की वृत्तियों को प्रतिक्षण मध्यमा में लाकर ध्यान करने पर चंचलता शांत होकर भीतर विलक्षण स्वरूप का अनुभव होता है।
- धारणा 44: चक्रों को ऊर्जा मिलने पर दो प्रकार की भावना पैदा होती है: बह्नेर (जीव शक्ति का संकुचित होना यानि पुरुष चित्त होना) या विषस्य (प्राण शक्ति का विकास यानि स्त्रैण चित्त) दोनों के मध्य में रुक जाने से कुंडलिनी शक्ति का विकास होता है। तब परम आनंद स्वरूप का अनुभव होता है।
भाग 20: ज्ञान मार्ग, विश्व के बनने का
इस भाग में कुल 3 धारणाएं हैं:
- धारणा 32: कैसे ऊर्जा घनीभूत होकर पदार्थ बनी, और पदार्थ में से चेतन और मन बना तथा यह पूरा विस्तार हुआ। इसका अभ्यास करते रहने पर शिव तत्व का स्वरूप जान लेने से चित्त विलीन हो जाता है।
- धारणा 33: बनने और बिखरने की शक्ति ही परम शक्ति है। इस पर ध्यान करने से परम शिव का साक्षात्कार होता है।
- धारणा 39: पूरा शरीर और जगत की सारी वस्तुएं एक विचार रूप हैं। ऐसा भाव करने से मन निर्विकल्प होकर प्रमोद अवस्था में आ जाता है।
भाग 21: ज्ञान मार्ग, मिथ्या का ज्ञान
इस भाग में कुल 4 धारणाएं हैं:
- धारणा 42: हे मृगनैनी, आध्यात्मिक सिद्धियों से आश्चर्यजनक कार्य होते हैं। ऐसी मिथ्या परिस्थिति पर भावना केंद्रित करने से चित्त में परम आनंद का उदय होता है और उसमें निर्विकल्प भैरव प्रकट होता है।
- धारणा 97: शारीरिक शुद्धि तत्व ज्ञान में सहायक नहीं है, यानी अशुद्धि ही है। इसलिए शारीरिक शुद्धि के बिना भी निर्विकल्प ज्ञान की सहायता से मन को निर्मल बनाकर आत्मा में प्रतिष्ठित हो सकता है।
- धारणा 98: सभी पदार्थों में भैरव समान रूप से व्याप्त हैं। सामान्य जनों को भी इसकी प्रतीति होती है। इसे जान लेने से वह आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है।
- धारणा 99: शत्रु, मित्र, सम्मान करने वाले, अपमान करने वाले, ब्राह्मण सभी में एक ही ब्रह्म विद्यमान है। यह जानकर मान-अपमान, हर्ष-विषाद में नहीं पड़ता और सभी प्रकार से सुखी हो जाता है।
भाग 22: ज्ञान मार्ग, द्वैत का ज्ञान
इस भाग में कुल 5 धारणाएं हैं:
- धारणा 61: पहले द्वैत को जानना और फिर द्वैत को जानने वाला “मैं” भी भैरव स्वरूप हूँ। यह जान लेने पर अनंत प्रकाश स्वरूप हो जाता है।
- धारणा 65: “अ” (पूरक) और “अः” (रेचक) को छोड़कर, यानी कुंभक मध्य अकार का जप करने पर परमेश्वर के समान स्वरूप हो जाता है।
- धारणा 66: “अ” (पूरक) और “अः” (रेचक) में से किसी एक पर ही ध्यान करने से अपना काल्पनिक स्वरूप लीन होकर स्वाभाविक स्वरूप प्रकट होता है।
- धारणा 69: अंतःकरण की कोई सत्ता नहीं है। इस भावना से बाह्य विकल्पों की भी सत्ता समाप्त हो जाती है। तब निर्विकल्प दशा प्रकट होती है।
- धारणा 70: व्यर्थ में देखना माया का धर्म है, कुछ करना कला का धर्म है, कुछ जानना विद्या का धर्म है। इन सभी तत्वों को जान लेने पर सबसे अलग होकर स्व आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है।
भाग 23: ज्ञान मार्ग, इच्छाओं का ज्ञान
इस भाग में कुल ४ धारणाएं हैं:
- धारणा 71: अपनी इच्छाओं को साक्षी भाव से देखने पर, जैसे लहरें समुद्र में लीन हो जाती हैं, वैसे इच्छाएँ मन में लीन हो जाती हैं और प्रशान्त स्वरूप प्रकट होता है।
- धारणा 72: मेरे अंदर यदि इच्छा, ज्ञान, क्रिया आदि न हों, तो क्या रह जाता है? इस पर चित्त लगाने से आनंद स्वरूप प्रकट होता है।
- धारणा 73: मेरे अंदर इच्छा, ज्ञान, क्रिया है। वैसा साक्षी भाव से देखने वाला कौन है? इस पर चित्त लगाने से परम तत्व का दर्शन होता है।
- धारणा 74: वस्तुओं की कोई वास्तविक सत्ता नहीं होने पर सभी प्रकार का ज्ञान भी निराधार है, यानी भ्रांति जन्य है। ऐसी भावना करने से शिव हो जाता है।
भाग 24: ज्ञान मार्ग, माया का ज्ञान
इस भाग में कुल 5 धारणाएं हैं:
- धारणा 77: इंद्रजाल की तरह माया से बना यह सारा विश्व चित्र के समान काल्पनिक भ्रम है। ऐसी भावना से चित्त में न मिटने वाला सुख उत्पन्न होता है।
- धारणा 78: हे भैरवी, न सुख में, न दुःख में, बल्कि दोनों को देखने वाले साक्षी पर चित्त एकाग्र करने से भैरव स्वरूप प्रकट होता है।
- धारणा 83: हे मृगनैनी, संकल्प की कला में जीव भाव और निर्विकल्प दशा में ब्रह्म भाव विद्यमान है। इसलिए विकल्पों के त्याग की धारणा करनी चाहिए।
- धारणा 84: परम तत्व दो स्वरूपों में जाना जाता है: एक, “मैं साक्षी हूँ” और दूसरा, “यह मेरा ही विस्तार है।” इसे पहचानने से विस्मय होता है।
- धारणा 85: जैसे लहरें जल से उठती हैं और ज्वाला अग्नि से, वैसे यह सब कुछ भैरव से प्रकट होता है। ऐसी धारणा दृढ़ करने से यह पूरा विश्व शिव स्वरूप दिखता है।
भाग 25: ज्ञान मार्ग, एकता का ज्ञान
इस भाग में कुल ४ धारणाएं हैं:
- धारणा 79: केवल इस देह में ही नहीं, बल्कि सब कुछ “मैं” हूँ। इस भावना में चित्त करने से सुखी हो जाता है।
- धारणा 80: यह ज्ञान और इच्छा केवल मुझमें ही नहीं, बल्कि सभी में समान रूप से होते हैं। यह जानने पर प्रकाश स्वरूप व्याप्त हो जाता है।
- धारणा 81: ज्ञान और अन्य तत्व सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध हैं। यह जानने से मैं केवल एक ग्रहणकर्ता हूँ। मैं कोई विशेष नहीं हूँ।
- धारणा 82: यदि सभी देह एक ही तत्व से बनी हैं, तो दूसरों के अनुभव भी जाने जा सकते हैं। यह जानने से परकाया प्रवेश का सामर्थ्य आता है।
भाग 26: ज्ञान मार्ग, निराधार का ज्ञान
इस भाग में कुल ४ धारणाएं हैं:
- धारणा 87: आश्रय या सामर्थ्य न होने से चंचलता शांत हो जाती है और अपने ही अनुभव के आनंद का अनुभव होता है।
- धारणा 91: जो कुछ दिखाई देता है, वह सब चैतन्य प्रकाश का रूप है। विचार शक्ति के कारण यह सारा जगत प्रकट होता है। इसे जानने से प्रकाश में लीन हो जाता है।
- धारणा 93: जिस अनुभव से स्मृति का जन्म हुआ, उस स्मृति की उपस्थिति पर उसका त्यागकर उसके आधारभूत ज्ञान को पकड़े और शरीर को भी इस अनुभव से अलग करे। यह भावना भैरव स्वरूप प्रकट करती है।
- धारणा 94: किसी वस्तु को देखने के बाद उसका ज्ञान, अनुभव और उससे उत्पन्न वासना को छोड़कर शून्यता की भावना करने से परम पद में विश्राम प्राप्त होता है।
भाग 27: ज्ञान मार्ग, परम ऊर्जा का ज्ञान
इस भाग में कुल 3 धारणाएं हैं:
- धारणा 101: जिसे जाना न जा सके, जिसकी धारणा न हो सके, जिसकी भावना न की जा सके, फिर भी जो सभी में व्याप्त है। ऐसी भावना करने से सच्ची समझ मिलती है।
- धारणा 102: अनंत, बिना सहारे के व्यापक, असंख्य, ऐसा भाव सभी में व्याप्त करने पर जीव तत्व में समाविष्ट हो जाता है।
- धारणा 106: स्वतंत्र, स्वभाव, प्रभु, परमेश्वर, अनंत, निराधार, व्यापक, सारे जगत का स्वामी – इन शब्दों का अर्थ समझकर उनके ऊपर चित्त को एकाग्र करने से मोक्ष तक की सिद्धि प्राप्त होती है।
भाग 28: ज्ञान मार्ग, मन का ज्ञान
इस भाग में कुल 3 धारणाएं हैं:
- धारणा 103: जहाँ-जहाँ मन चंचलता के कारण जाता है, वहाँ से उसे तुरंत हटा लेने का निरंतर अभ्यास करने से स्थिरता प्राप्त होती है।
- धारणा 104: भैरव शब्द भया और रवयति यानि बाह्य भय कारक और अन्तर सुख कारक सभी का कारण एक तत्व भैरव के रूप में पहचानकर उसे वारवार याद रखने से भय मुक्त हुआ जा सकता है।
- धारणा 105: “यह मैं हूँ, यह मेरा है” ऐसा जान ने वाला अज्ञानी, समझ वाला ज्ञानी या सब जान लेने वाला परम ज्ञानी सब में एक ही परम ऊर्जा है और निराधार वस्तु में ही मन जाता है ये भी सब में समान है। सब आनंद स्वरूप है। ऐसा जान लेने पर सभी प्रकार का द्वंद शांत हो जाता है।
भाग 29: ज्ञान मार्ग, शून्य का ज्ञान
इस भाग में कुल 3 धारणाएं हैं:
- धारणा 107: यह सारा जगत सारहीन है। यह इंद्रजाल के समान माया है। इस भाव को गहराई से समझने पर समाधि में लीन हो जाता है।
- धारणा 108: आत्मा में कोई विकार नहीं हो सकता। ज्ञान और क्रिया विकार हैं ये बाहरी पदार्थों पर आधारित हैं। यह जानने से जगत शून्यवत हो जाता है।
- धारणा 109: न बंधन है, न मोक्ष है। जैसे जल में प्रतिबिंब उल्टा दिखता है, वैसे ही उल्टी समझ के कारण यह सब दिखाई देता है।
भाग 30: ज्ञान मार्ग, गुणों का ज्ञान
इस भाग में कुल 3 धारणाएं हैं:
- धारणा 110: सुख-दुख सब इंद्रियों की वजह से ही लगते हैं। इंद्रियों से ध्यान को हटा लेने पर आत्मा स्वरूप में प्रतिष्ठित होकर इंद्रियों से छुटकारा मिल जाता है।
- धारणा 111: जानने की शक्ति या ज्ञान से ही सब कुछ प्रकाशित होता है। इसका अर्थ है कि ज्ञान और जानने वाला एक ही ऊर्जा हैं।
- धारणा 112: हे प्रिय, मन (निर्णय शक्ति), ज्ञान (जानने की शक्ति), जीव (संग्रहित ज्ञान), और आत्मा (परम आत्मा) – जब ये चारों विलीन हो जाते हैं, तब भैरव अवस्था प्रकट होती है।
Sanskrit Text with English Commentary
श्री देव्युवाच। श्रुतं देव मया सर्वं रुद्रयामलसम्भवम्। त्रिकभेदमशेषेण सारात्सारविभागशः॥ १॥
Sri Devi said: O Deva, I have heard in detail all that has been revealed through the union of Rudra and his shakti or what has emerged from the Rudrayamala Tantra. I have also understood Trika, or the three divisions of Shakti, which forms the quintessence of all knowledge. (1)
अद्यापि न निवृत्तो मे संशयः परमेश्वर। किं रूपं तत्त्वतो देव शब्दराशिकलामयम्॥ २॥
O Supreme Lord, in spite of everything that I have heard, even today my doubts are not dispelled. What is your reality, O Divine One? Are you the power or energy contained in sound from which all the mantras have originated? (2)
किं वा नवात्मभेदेन भैरवे भैरवाकृतौ। त्रिशिरोभेदभिन्नं वा किं वा शक्तित्रयात्मकम्॥ ३॥
Can your reality be perceived through the nine different ways by which one can enter the realm of higher consciousness, as enumerated in Bhairava Agama? Is it different from the procedure in Trishira Bhairava Tantra? Or can it be perceived through knowledge of the triple forms of shakti, ie. para, parapara and apara? These are my doubts, O Bhairava! (3)
नादबिन्दुमयं वापि किं चन्द्रार्धनिरोधिकाः। चक्रारूढमनच्कं वा किं वा शक्तिस्वरूपकम्॥ ४ ॥
Is it nada and bindu or can it be known by concentrating on the ascending psychic centres or the unstruck sound which emanates without any vibration? Or is it the form of the obstructing half moon or else is it the form of shakti? (4)
परापरायाः सकलमपरायाश्च वा पुनः। पराया यदि तद्वत्स्यात्परत्वं तद् विरुध्यते॥ ५॥
(Is your reality) transcendent and immanent or is it completely immanent or completely transcendental? If it is immanent (then the very) nature of transcendence is contradicted. (5)
न हि वर्णविभेदेन देहभेदेन वा भवेत्। परत्वं निष्कलत्वेन सकलत्वे न तद् भवेत्॥ ६॥
Paratva, or transcendence, cannot exist in the divisions of varna (colour), shabda (sound) or roopa (form). If transcendence is indivisible, then it cannot be defined or co-exist with composite parts. (6)
प्रसादं कुरु मे नाथ निःशेषं चिन्द्धि संशयम्।
O Lord, be pleased to destroy all my doubts completely.
भैरव उवाच। साधु साधु त्वया पृष्टं तन्त्रसारम् इदम् प्रिये॥ ७॥
Then Bhairava says: Good, well spoken, O dear one! What you have asked about is the essence of tantra. (7)
गूहनीयतमम् भद्रे तथापि कथयामि ते। यत्किञ्चित्सकलं रूपं भैरवस्य प्रकीर्तितम्॥ ८॥
Noble lady, although this is the most secret part of the tantras, yet I will speak to you about what has been expounded regarding the (defined) forms of Bhairava. (8)
तद् असारतया देवि विज्ञेयं शक्रजालवत्। मायास्वप्नोपमं चैव गन्धर्वनगरभ्रमम्॥ ९॥
O Devi, the sakara aspect of Bhairava is insubstantial and of no spiritual value, like the illusory dream-like web of Indra, and is also like the delusion of celestial musicians. (9)
ध्यानार्थम् भ्रान्तबुद्धीनां क्रियाडम्बरवर्तिनाम्। केवलं वर्णितम् पुंसां विकल्पनिहतात्मनाम्॥ १०॥
(The sakara sadhanas) are described for those people of deluded intellect, who are prey to distracted thought patterns or are inclined towards the performance of action and ostentatious rituals to traverse the path of meditation. (10)
तत्त्वतो न नवात्मासौ शब्दराशिर् न भैरवः। न चासौ त्रिशिरा देवो न च शक्तित्रयात्मकः॥ ११॥
In reality (the essence) of Bhairava is not the nine forms, nor the garland of letters, nor the three flows and not even the three powers of shakti. (11)
नादबिन्दुमयो वापि न चन्द्रार्धनिरोधिकाः। न चक्रक्रमसम्भिन्नो न च शक्तिस्वरूपकः॥ १२॥
His (Bhairava’s) form (cannot be perceived) in nada and bindu nor even in the obstructed half moon, nor in the piercing of successive chakras, nor docs shakti, or energy, constitute his essence. (12)
अप्रबुद्धमतीनां हि एता बलविभीषिकाः। मातृमोदकवत्सर्वं प्रवृत्त्यर्थम् उदाहृतम्॥ १३॥
These things have been told (about the form of Bhairava), like the tales used to frighten children, to induce people of immature intellect to follow the spiritual path, just as the mother entices her child with sweets. (13)
दिक्कालकलनोन्मुक्ता देशोद्देशाविशेषिनी। व्यपदेष्टुमशक्यासाव् अकथ्या परमार्थतः॥ १४॥
Ultimately (that state of bhairava) cannot be measured in terms of time, space or direction, nor can it be indicated by any attribute or designation. (14)
अन्तःस्वानुभवानन्दा विकल्पोन्मुक्तगोचरा। यावस्था भरिताकारा भैरवी भैरवात्मनः॥ १५॥
One can have this inner experience for in oneself when the mind is free from modifications or thought patterns. The atman of bhairava, which is known as bhairavi, is then experienced as the bliss of one’s own inner awareness, a state whose form is fullness, free from all contradictions (which is the abode of the entire universe). (15)
तद् वपुस् तत्त्वतो ज्ञेयं विमलं विश्वपूरणम्। एवंविधे परे तत्त्वे कः पूज्यः कश्च तृप्यति॥ १६॥
The essence of his nature is known to be free of dross and pervades the entire universe. This being the nature of the highest reality, who is the object of worship and who is to be pacified by worship? (16)
एवंविधा भैरवस्य यावस्था परिगीयते। सा परा पररूपेण परा देवी प्रकीर्तिता॥ १७॥
In this way the transcendental state of bhairava, which is described or sung of, is known by means of the absolute or highest form that is Paradevi, the highest goddess. (17)
शक्तिशक्तिमतोर् यद्वद् अभेदः सर्वदा स्थितः। अतस् तद्धर्मधर्मित्वात्परा शक्तिः परात्मनः॥ १८॥
Just as shakti, or power, is not different from shaktimaan, the holder of power, similarly parashakti, the highest power, who is the essence of the absolute (and therefore) identical with dharma, can never be separated from Bhairava, the possessor of dharma. (18)
न वह्नेर् दाहिका शक्तिर् व्यतिरिक्ता विभाव्यते। केवलं ज्ञानसत्तायाम् प्रारम्भोऽयम् प्रवेशने॥ १९॥
(Just as) the power to burn is not separate from fire, (similarly parashakti is not different from Bhairava). However, it is imagined as separate in the beginning, as a preliminary step towards entry into its knowledge. (19)
शक्त्यवस्थाप्रविष्टस्य निर्विभागेन भावना। तदासौ शिवरूपी स्यात्शैवी मुखम् इहोच्यते॥ २०॥
One who enters the state of shakti has the feeling of identification with Shiva, without division. Then one verily becomes like the form of Shiva. In this context, it is said that Shakti is the face of Shiva. (20)
यथालोकेन दीपस्य किरणैर् भास्करस्य च। ज्ञायते दिग्विभागादि तद्वच् चक्त्या शिवः प्रिये॥ २१॥
Just as space, direction and form are revealed by the flame of a candle or the rays of the sun, similarly Shiva is revealed by the medium of Shakti, O clear one. (21)
श्री देव्युवाच। देवदेव त्रिशूलाङ्क कपालकृतभूषण। दिग्देशकालशून्या च व्यपदेशविवर्जिता॥ २२॥
Sri Devi said: O Lord of the Gods, who bears the trident and skulls as ornaments, (tell me) of that state (which is) devoid of time, space and direction and free from (any) characteristics. (22)
यावस्था भरिताकारा भैरवस्योपलभ्यते। कैर् उपायैर् मुखं तस्य परा देवि कथम् भवेत्। यथा सम्यग् अहं वेद्मि तथा मे ब्रूहि भैरव॥ २३॥
By what means can that state of fullness of Bhairava be achieved, (and) how does Paradevi, the highest Shakti, become the face (or entrance of Bhairava)? Tell me (this), O Bhairava, in the manner (whereby) I shall know it completely. (23)
भैरव उवाच। ऊर्ध्वे प्राणो ह्यधो जीवो विसर्गात्मा परोच्चरेत्। उत्पत्तिद्वितयस्थाने भरणाद् भरिता स्थितिः॥ २४॥
Sri Bhairava said: Paradevi, whose nature is visarga, or creation, manifests as the upward prana and the downward apana. By fixing the mind at the two points of gene you realize her. (24)
मरुतोऽन्तर् बहिर् वापि वियद्युग्मानिवर्तनात्। भैरव्या भैरवस्येत्थम् भैरवि व्यज्यते वपुः॥ २५॥
When the ingoing pranic air and outgoing pranic air are both restrained in their space from their (respective points of) return, the essence of bhairava, which is not different from bhairavi, manifests. (25)
न व्रजेन् न विशेच् चक्तिर् मरुद्रूपा विकासिते। निर्विकल्पतया मध्ये तया भैरवरूपता॥ २६॥
When Shakti in the form of vayu or pranic air is still and does not move swiftly in a specific direction, there develops in the middle, through the state of Nirvikalpa, the form of Bhairava. (26)
कुम्भिता रेचिता वापि पूरिता वा यदा भवेत्। तदन्ते शान्तनामासौ शक्त्या शान्तः प्रकाशते॥ २७॥
When Kumbhaka takes place after Puraka or Rechaka, then the shakti known as shanta is experienced and through that peace (the bhairava consciousness) is revealed. (27)
आमूलात्किरणाभासां सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरात्मिकम्। चिन्तयेत्तां द्विषट्कान्ते श्याम्यन्तीम् भैरवोदयः॥ २८॥
Concentrate on the shakti arising from the root like the rays of the sun, gradually becoming subtler and subtler, until at last she dissolves in the dwadashanta and bhairava manifests. (28)
उद्गच्चन्तीं तडित्रूपाम् प्रतिचक्रं क्रमात्क्रमम्। ऊर्ध्वं मुष्टित्रयं यावत्तावद् अन्ते महोदयः॥ २९॥
(Meditate on that shakti) moving upwards like lightning through all the chakras one by one to the dwadashanta. Then at last the glorious form of Bhairava dawns. (29)
क्रमद्वादशकं सम्यग् द्वादशाक्षरभेदितम्। स्थूलसूक्ष्मपरस्थित्या मुक्त्वा मुक्त्वान्ततः शिवः॥ ३०॥
The twelve (centres) should be pierced successively through proper understanding of their (associated) twelve letters. Thus becoming liberated from the gross then the subtle, one by one, at the end (of its journey) the kundalini becomes Shiva. (30)
तयापूर्याशु मूर्धान्तं भङ्क्त्वा भ्रूक्षेपसेतुना। निर्विकल्पं मनः कृत्वा सर्वोर्ध्वे सर्वगोद्गमः॥ ३१॥
Then, having filled the tip of moordha (forehead) and crossed the bridge between the eyebrows, the mind rises above all dichotomizing thought patterns and omnipresence (prevails). (31)
शिखिपक्षैश् चित्ररूपैर् मण्डलैः शून्यपञ्चकम्। ध्यायतोऽनुत्तरे शून्ये प्रवेशो हृदये भवेत्॥ ३२॥
Like the live different coloured circles on the peacock’s feathers, one should meditate on the five voids. Then by following them to the end, which becomes the principle void, enter the heart. (32)
ईदृशेन क्रमेणैव यत्र कुत्रापि चिन्तना। शून्ये कुड्ये परे पात्रे स्वयं लीना वरप्रदा॥ ३३॥
In this way, wherever there is mindful awareness, either on the void, or on another (object such as a) wall, or on an excellent person (such as guru), gradually the boon of absorption into the self is granted. (33)
कपालान्तर् मनो न्यस्य तिष्ठन् मीलितलोचनः। क्रमेण मनसो दार्ढ्यात्लक्षयेत्लष्यम् उत्तमम्॥ ३४॥
Having closed the eyes, and fixing the attention at the crown of the head, gradually stabilize the mind and direct it towards the goal, which will become discernible. (34)
मध्यनाडी मध्यसंस्था बिससूत्राभरूपया। ध्यातान्तर्व्योमया देव्या तया देवः प्रकाशते॥ ३५॥
One should meditate on the inner space of the medial nadi (sushumna) situated in the central axis of the body (the spinal column), which is as slender as a fibre of the lotus stem, and then by the grace of Devi, the divine (form) is revealed. (35)
कररुद्धदृगस्त्रेण भ्रूभेदाद् द्वाररोधनात्। दृष्टे बिन्दौ क्रमाल् लीने तन्मध्ये परमा स्थितिः॥ ३६॥
By using the hands (as tools) to block the entrances in all directions, the eyebrow centre is pierced and bindu (or light) is seen. Being gradually absorbed within that, the supreme state is realized. (36)
धामान्तःक्षोभसम्भूतसूक्ष्माग्नितिलकाकृतिम्। बिन्दुं शिखान्ते हृदये लयान्ते ध्यायतो लयः॥ ३७॥
Whenever one meditates upon the subtle lire, in the form of a tilak (like the mark on the forehead), or on the bindu at the end of the shikha, a condition of agitation and shaking is produced, followed by absorption and dissolution in the cave of the heart. (37)
अनाहते पात्रकर्णेऽभग्नशब्दे सरिद्द्रुते। शब्दब्रह्मणि निष्णातः परम् ब्रह्माधिगच्चति॥ ३८॥
One, who is adept in listening to the unstruck sound in anahata, (which is) uninterrupted like a rushing river, attains the supreme state of Brahma by mastery of shabdabrahman, the form of Brahman as sound. (38)
प्रणवादिसमुच्चारात्प्लुतान्ते शून्यभावानात्। शून्यया परया शक्त्या शून्यताम् एति भैरवि॥ ३९॥
O Bhairavi, one who repeats the Pranava (Aum) perfectly, while concentrating on the void for protracted periods, experiences the void, and by that void the transcendental shakti (is revealed). (39)
यस्य कस्यापि वर्णस्य पूर्वान्ताव् अनुभावयेत्। शून्यया शून्यभूतोऽसौ शून्याकारः पुमान् भवेत्॥ ४०॥
Whoever contemplates even on the matras or letters (of Aum) from first to last, in the form of void, verily that sadhaka by meditation on the void becomes the void. (40)
तन्त्र्यादिवाद्यशब्देषु दीर्घेषु क्रमसंस्थितेः। अनन्यचेताः प्रत्यन्ते परव्योमवपुर् भवेत्॥ ४१॥
When one-pointed awareness on the prolonged inner sounds of different musical instruments, such as stringed, wind and percussion, is gradually established, in the end the body becomes the supreme space. (41)
पिण्डमन्त्रस्य सर्वस्य स्थूलवर्णक्रमेण तु। अर्धेन्दुबिन्दुनादान्तः शून्योच्चाराद् भवेच् चिवः॥ ४२॥
By repetition of all the gross letters of the bija mantras successively, including the ‘M’, (and meditating thus! on the void within each sound, one verily becomes Shiva. (42)
निजदेहे सर्वदिक्कं युगपद् भावयेद् वियत्। निर्विकल्पमनास् तस्य वियत्सर्वम् प्रवर्तते॥ ४३॥
All the directions should be contemplated upon simultaneously in one’s own body as space or void. The mind (too) being free from all thoughts becomes dissolved (in the vacuous space of consciousness). (43)
पृष्टशून्यं मूलशून्यं युगपद् भावयेच् च यः। शरीरनिरपेक्षिण्या शक्त्या शून्यमना भवेत्॥ ४४॥
One who contemplates simultaneously on the void of the back (spinal column) and the void of the root becomes void-minded (completely free of all thought constructs or Vikalpas) by that energy which is independent of the body. (44)
पृष्टशून्यं मूलशून्यं हृच्चून्यम् भावयेत्स्थिरम्। युगपन् निर्विकल्पत्वान् निर्विकल्पोदयस् ततः॥ ४५॥
By steady contemplation on the void of the back (sushumna), the void of the root and the void of the heart simultaneously, there arises the state of nirvikalpa, which is free from thought constructs. (45)
तनूदेशे शून्यतैव क्षणमात्रं विभावयेत्। निर्विकल्पं निर्विकल्पो निर्विकल्पस्वरूपभाक्॥ ४६॥
If one concentrates on the body as a void, even for a moment, with the mind free from thought, then one attains thoughtlessness and verily becomes that form of void (known as Bhairava). (46)
सर्वं देहगतं द्रव्यं वियद्व्याप्तं मृगेक्षणे। विभावयेत्ततस् तस्य भावना सा स्थिरा भवेत्॥ ४७॥
O gazelle-eyed one, concentrate upon all the constituents of the body pervaded by space, so that the thought becomes steady. (47)
देहान्तरे त्वग्विभागम् भित्तिभूतं विचिन्तयेत्। न किञ्चिद् अन्तरे तस्य ध्यायन्न् अध्येयभाग् भवेत्॥ ४८॥
One should contemplate on the skin of the body as a mere wall or partition with nothing inside it. By meditating thus, he becomes like the void, which cannot be meditated upon. (48)
हृद्याकाशे निलीनाक्षः पद्मसम्पुटमध्यगः। अनन्यचेताः सुभगे परं सौभाग्यमाप्नुयात्॥ ४९॥
O embodiment of good fortune, one who contemplates with closed eyes and one-pointed concentration on the mantra in the middle of the lotus in the heart space achieves the highest spiritual realization. (49)
सर्वतः स्वशरीरस्य द्वादशान्ते मनोलयात्। दृढबुद्धेर् दृढीभूतं तत्त्वलक्ष्यम् प्रवर्तते॥ ५०॥
When the mind is dissolved in dwadashanta by steady awareness and steady practice, the true nature or essence of the goal manifests everywhere in one’s body. (50)
यथा तथा यत्र तत्र द्वादशान्ते मनः क्षिपेत्॥ प्रतिक्षणं क्षीणवृत्तेर् वैलक्षण्यं दिनैर् भवेत्॥ ५१॥
By bringing the mind forcibly to dwadashanta again and again, however and wherever possible, the fluctuations of the mind diminish day by day, so that each moment becomes an extraordinary state. (51)
कालाग्निना कालपदाद् उत्थितेन स्वकम् पुरम्। प्लुष्टम् विचिन्तयेद् अन्ते शान्ताभासस् तदा भवेत्॥ ५२॥
One should contemplate that one’s own body has been burnt by Kaalagni, arising, from the movement of time. Then at last one will experience tranquility. (52)
एवम् एव जगत्सर्वं दग्धं ध्यात्वा विकल्पतः। अनन्यचेतसः पुंसः पुम्भावः परमो भवेत्॥ ५३॥
In the same way, having meditated with an unwavering and one-pointed mind on the entire universe being burnt (by Kaalagni), that man becomes a godman or attains a supreme state of manhood. (53)
स्वदेहे जगतो वापि सूक्ष्मसूक्ष्मतराणि च। तत्त्वानि यानि निलयं ध्यात्वान्ते व्यज्यते परा॥ ५४॥
Dharana on those constituents which comprise one’s own body and the whole universe, such as the tattwas and tanmatras, from subtle to subtlest, leads to the source of existence. (In this way) Paradevi, the supreme goddess, (is revealed) at the end of meditation. (54)
पिनां च दुर्बलां शक्तिं ध्यात्वा द्वादशगोचरे। प्रविश्य हृदये ध्यायन् मुक्तः स्वातन्त्र्यमाप्नुयात्॥ ५५॥
Having meditated on the gross and weak shakti in the twelve Indriyas (thus making it subtle), one who enters the heart space and meditates there attains mukti and becomes iberated. (55)
भुवनाध्वादिरूपेण चिन्तयेत्क्रमशोऽखिलम्। स्थूलसूक्ष्मपरस्थित्या यावद् अन्ते मनोलयः॥ ५६॥
By meditating on the entire form of the universe and the course of its development through time and space, gradually dissolve the gross into the subtle and the subtle into the state of being beyond, until the mind is finally dissolved (into pure consciousness). (56)
अस्य सर्वस्य विश्वस्य पर्यन्तेषु समन्ततः। अध्वप्रक्रियया तत्त्वं शैवं ध्यत्वा महोदयः॥ ५७॥
one should meditate on all the sides or aspects of the universe up to the Shiva tatwa (which is the quintessence) of all. In this way the experience of thesupreme reality arises. (57)
विश्वम् एतन् महादेवि शून्यभूतं विचिन्तयेत्। तत्रैव च मनो लीनं ततस् तल्लयभाजनम्॥ ५८॥
O great Goddess, one should concentrate on this universe as nothing but void. Dissolving the mind also like this, one then experiences the state of laya, or total dissolution.
घतादिभाजने दृष्टिम् भित्तिस् त्यक्त्वा विनिक्षिपेत्। तल्लयं तत्क्षणाद् गत्वा तल्लयात्तन्मयो भवेत्॥ ५९॥
One should fix his sight (on the empty space) inside the pot, leaving aside the enclosing structure. Thus, the pot bei ng gone, the mind will at once be dissolved (into the space).Through that laya the mind becomes completely absorbed (in the void).
निर्वृक्षगिरिभित्त्यादिदेशे दृष्टिं विनिक्षिपेत्। विलीने मानसे भावे वृत्तिक्षिणः प्रजायते॥ ६०॥
One should fix his gaze on a treeless place, like bare mountains or rocks, where there is no support for the mind to dwell on. Then the modifications of the mind become less and the experience of dissolution takes place.
उभयोर् भावयोर् ज्ञाने ध्यात्वा मध्यं समाश्रयेत्। युगपच् च द्वयं त्यक्त्वा मध्ये तत्त्वम् प्रकाशते॥ ६१॥
One should think of two objects, and in the event of such knowledge being matured, then cast both aside and dwell on the gap or space) in the middle. Having meditated in the middle, the experience of the essence arises.
भावे त्यक्ते निरुद्धा चिन् नैव भावान्तरं व्रजेत्। तदा तन्मध्यभावेन विकसत्यति भावना॥ ६२॥
When the mind is restrained to one object of awareness, casting all others aside and not allowing movement to lake place from one to another, then inside that perception the awareness blossoms.
सर्वं देहं चिन्मयं हि जगद् वा परिभावयेत्। युगपन् निर्विकल्पेन मनसा परमोदयः॥ ६३॥
One should concentrate with an unwavering mind on all existence, the body and even the universe simultaneously as nothing but consciousness, then the supreme consciousness arises.
वायुद्वयस्य सङ्घट्टाद् अन्तर् वा बहिर् अन्ततः। योगी समत्वविज्ञानसमुद्गमनभाजनम्॥ ६४॥
From the fusion of both vayus (prana and apana) inside or outside (the body), the yogi attains equilibrium and becomes fit for the proper manifestation of consciousness.
सर्वं जगत्स्वदेहं वा स्वानन्दभरितं स्मरेत्। युगपत्स्वामृतेनैव परानन्दमयो भवेत्॥ ६५॥
One should contemplate simultaneously on the entire universe or on one’s own body filled with the bliss of the self. Then through one’s own nectar, one becomes alive with the supreme bliss.
कुहनेन प्रयोगेण सद्य एव मृगेक्षणे। समुदेति महानन्दो येन तत्त्वं प्रकाशते॥ ६६॥
O gazelle-eyed one, verily by applying the performance of religious austerities, great bliss arises immediately, by which the essence is illumined.
सर्वस्रोतोनिबन्धेन प्राणशक्त्योर्ध्वया शनैः। पिपीलस्पर्शवेलायाम् प्रथते परमं सुखम्॥ ६७॥
By blocking all the channels (of perception) the prana- shakti moves slowly upwards (through the spinal column). At that time, feeling the sensation of an ant crawling in the body, one experiences the supreme bliss.
वह्नेर् विषस्य मध्ये तु चित्तं सुखमयं क्षिपेत्। केवलं वायुपूर्णं वा स्मरानन्देन युज्यते॥ ६८॥
One should throw the blissful mind into the fire (manipura chakra) in the middle of that fibre-like lotus stalk (sushumna) or into that which is only full of air (anahata chakra). Then one is united with the remembrance of bliss.
शक्तिसङ्गमसङ्क्षुब्धशक्त्यावेशावसानिकम्। यत्सुखम् ब्रह्मतत्त्वस्य तत्सुखं स्वाक्यम् उच्यते॥ ६९॥
By the union with shakti there is excitation and in the end, one is absorbed into shakti. That bliss (of union) which is said to be the nature of Brahman (ever-expanding consciousness), that bliss is (in reality) one’s own self.
लेहनामन्थनाकोटैः स्त्रीसुखस्य भरात्स्मृतेः। शक्त्यभावेऽपि देवेशि भवेद् आनन्दसम्प्लवः॥ ७०॥
O Queen of Gods, the bliss of a woman is attained even in the absence of shakti. By fully remembering and absorbing the mind in the experience of kissing, hugging and embracing, the bliss swells.
आनन्दे महति प्राप्ते दृष्टे वा बान्धवे चिरात्। आनन्दम् उद्गतं ध्यात्वा तल्लयस् तन्मना भवेत्॥ ७१॥
When great joy is obtained (through any event such as) meeting with relatives, one should meditate on that with one-pointedness, until the mind becomes absorbed and the bliss ever arises.
जग्धिपानकृतोल्लासरसानन्दविजृम्भणात्। भावयेद् भरितावस्थां महानन्दस् ततो भवेत्॥ ७२॥
If one concentrates on eating and drinking and the happiness obtained by that joy of taste, from such contemplation of enjoyment arises the state of fullness, which then becomes supreme joy or bliss.
गितादिविषयास्वादासमसौख्यैकतात्मनः। योगिनस् तन्मयत्वेन मनोरूढेस् तदात्मता॥ ७३॥
As a result of concentration on the pleasures of the senses, such as music or song, the yogis experience equal happiness (or pleasure) within. By being (thus) absorbed the yogi ascends beyond the mind and becomes one with that (supreme).
यत्र यत्र मनस् तुष्टिर् मनस् तत्रैव धारयेत्। तत्र तत्र परानन्दस्वारूपं सम्प्रवर्तते॥ ७४॥
Whenever there is satisfaction of mind and the mind is held there alone, the nature of supreme bliss manifests.
अनागतायां निद्रायाम् प्रणष्टे बाह्यगोचरे। सावस्था मनसा गम्या परा देवी प्रकाशते॥ ७५॥
By entering that state preceding sleep, where the awareness of the outer world has faded, (the mind is absorbed in the threshold state) which the supreme goddess illumines.
तेजसा सूर्यदीपादेर् आकाशे शबलीकृते। दृष्टिर् निवेश्या तत्रैव स्वात्मरूपम् प्रकाशते॥ ७६॥
By gazing on the space that appears variegated by the rays of the sun or an oil lamp, there the nature of one’s essential self is illumined.
करङ्किण्या क्रोधनया भैरव्या लेलिहानया। खेचर्या दृष्टिकाले च परावाप्तिः प्रकाशते॥ ७७॥
At the time of intuitive perception (the attitudes of) karankini, krodhana, bhairavi, lelihanaya and khechari are revealed, whereby the supreme attainment manifests.
The depiction of all Mudras can be seen here: https://zentocoach.wordpress.com/2014/01/06/healing-hands-vigyana-bhairava-tantra/
मृद्वासने स्फिजैकेन हस्तपादौ निराश्रयम्। निधाय तत्प्रसङ्गेन परा पूर्णा मतिर् भवेत्॥ ७८॥
Seated on a soft seat, by means of one buttock, with the hands and legs relaxed, at this time the mind becomes full of transcendence.
उपविश्यासने सम्यग् बाहू कृत्वार्धकुञ्चितौ। कक्षव्योम्नि मनः कुर्वन् शममायाति तल्लयात्॥ ७९॥
Sitting in a correct posture and curving the arms and hands into a circle, fix the gaze inside this space. The mind becomes peaceful by this laya.
स्थूलरूपस्य भावस्य स्तब्धां दृष्टिं निपात्य च। अचिरेण निराधारं मनः कृत्वा शिवं व्रजेत्॥ ८०॥
One should steady the gaze (without blinking) on the gross form of any object. When the mind is transfixed and made supportless (without any other thought or feeling), it at once acquires the state of shiva (transcendence).
मध्यजिह्वे स्फारितास्ये मध्ये निक्षिप्य चेतनाम्। होच्चारं मनसा कुर्वंस् ततः शान्ते प्रलीयते॥ ८१॥
(Placing) the middle of the tongue in that which has been opened widely and throwing the consciousness in the middle, mentally repeating ‘Ha’, the mind will be dissolved in tranquility.
आसने शयने स्थित्वा निराधारं विभावयन्। स्वदेहं मनसि क्षिणे क्षणात्क्षीणाशयो भवेत्॥ ८२॥
While sitting or lying down, one should think of one’s own body as being supportless (suspended in space). Then, in a moment (the samskaras or thought constructs) of the mind being reduced, it ceases to be a reservoir (of old mental dispositions).
चलासने स्थितस्याथ शनैर् वा देहचालनात्। प्रशान्ते मानसे भावे देवि दिव्यौघमाप्नुयात्॥ ८३॥
O Goddess, as a result of slowly swinging or rocking the body, one attains a tranquil state of mind and floats into the stream of divine consciousness.
आकाशं विमलम् पश्यन् कृत्वा दृष्टिं निरन्तराम्। स्तब्धात्मा तत्क्षणाद् देवि भैरवं वपुर् आप्नुयात्॥ ८४॥
O Devi, having fixed the gaze continuously on the clear sky (without blinking) and with a steady awareness, at once the nature of Bhairava is achieved.
लीनं मूर्ध्नि वियत्सर्वम् भैरवत्वेन भावयेत्। तत्सर्वम् भैरवाकारतेजस्तत्त्वं समाविशेत्॥ ८५॥
One should contemplate on the sky as the form of bhairava (until it is) all absorbed in the forehead. Then all that (space) will be entered by the essence of light in the state of bhairava.
किञ्चिज् ज्ञातं द्वैतदायि बाह्यालोकस् तमः पुनः। विश्वादि भैरवं रूपं ज्ञात्वानन्तप्रकाशभृत्॥ ८६॥
Knowing a bit about duality, the outer light and darkness in the manifest world and so on, one who again experiences the infinite form of Bhairava procures illumination.
एवम् एव दुर्निशायां कृष्णपक्षागमे चिरम्। तैमिरम् भावयन् रूपम् भैरवं रूपम् एष्यति॥ ८७॥
Like this, one should ever contemplate on the terrible darkness of night during the dark fortnight of the moon, if he desires to attain the form of bhairava.
एवम् एव निमील्यादौ नेत्रे कृष्णाभमग्रतः। प्रसार्य भैरवं रूपम् भावयंस् तन्मयो भवेत्॥ ८८॥
Similarly, while closing the eyes, one should contemplate on the profound darkness spreading in front as the form of bhairava. Thus he becomes one with that.
यस्य कस्येन्द्रियस्यापि व्याघाताच् च निरोधतः। प्रविष्टस्याद्वये शून्ये तत्रैवात्मा प्रकाशते॥ ८९॥
Whoever restrains even the same sense organ enters the one void without a second by this obstruction and there the atma, or self, is illumined.
अबिन्दुमविसर्गं च अकारं जपतो महान्। उदेति देवि सहसा ज्ञानौघः परमेश्वरः॥ ९०॥
O Devi, by recitation of akaara, the letter ‘A’, in the absence of bindu and visarga, a great torrent of knowledge of the supreme Lord, Parameshvara, at once arises.
वर्णस्य सविसर्गस्य विसर्गान्तं चितिं कुरु। निराधारेण चित्तेन स्पृशेद् ब्रह्म सनातनम्॥ ९१॥
When the mind is joined with the visarga, at the end of the visarga it is made supportless. In this way the mind is touched by the eternal Brahma, or the supreme consciousness.
व्योमाकारं स्वमात्मानं ध्यायेद् दिग्भिर् अनावृतम्। निराश्रया चितिः शक्तिः स्वरूपं दर्शयेत्तदा॥ ९२॥
When one meditates on one’s own self in the form of unlimited space (in all) directions, the mind is suspended and shakti in the form of consciousness is revealed as the form of one’s own self.
किञ्चिद् अङ्गं विभिद्यादौ तीक्ष्णसूच्यादिना ततः। तत्रैव चेतनां युक्त्वा भैरवे निर्मला गतिः॥ ९३॥
At first one should pierce any limb of the body a little bit with a sharp, pointed needle or any other instrument. Then projecting the consciousness there, verily there is movement towards the pure nature of bhairava.
चित्ताद्यन्तःकृतिर् नास्ति ममान्तर् भावयेद् इति। विकल्पानामभावेन विकल्पैर् उज्झितो भवेत्॥ ९४॥
By contemplating thus, the antahkarana, or inner instrument of mind, and so on is non-existent within me, then, in the absence of vikalpas (thought constructs), one becomes free from the vikalpas.
माया विमोहिनी नाम कलायाः कलनं स्थितम्। इत्यादिधर्मं तत्त्वानां कलयन् न पृथग् भवेत्॥ ९५॥
Maya is the delusive principle residing (in manifest existence), causing name and limited activity. Considering thus the nature or functions of the various elements, one (realizes that he) is not separate (from the supreme reality).
झगितीच्चां समुत्पन्नामवलोक्य शमं नयेत्। यत एव समुद्भूता ततस् तत्रैव लीयते॥ ९६॥
Observing the desires, which spring up in a flash, put an end to them. Then verily (the mind) will be absorbed in the very source from which they have arisen.
यदा ममेच्चा नोत्पन्ना ज्ञानं वा कस् तदास्मि वै। तत्त्वतोऽहं तथाभूतस् तल्लीनस् तन्मना भवेत्॥ ९७॥
(One should contemplate thus:) when my desires do not produce knowledge, then what am I? Indeed being absorbed in the essence I am, and identifying with that, one becomes that.
इच्चायामथवा ज्ञाने जाते चित्तं निवेशयेत्। आत्मबुद्ध्यानन्यचेतास् ततस् तत्त्वार्थदर्शनम्॥ ९८॥
When desire or knowledge arises, one should fix the mind there, thinking that to be the very self. Making the mind absolutely one-pointed (in this way), he realizes the essence of the tattwas.
इच्चायामथवा ज्ञाने जाते चित्तं निवेशयेत्। आत्मबुद्ध्यानन्यचेतास् ततस् तत्त्वार्थदर्शनम्॥ ९८॥
O dear one, (compared to absolute knowledge, all relative) knowledge is without cause, and thus becomes baseless and deceptive. In reality, knowledge does not belong to any one person. Contemplating like this, one becomes Shiva.
चिद्धर्मा सर्वदेहेषु विशेषो नास्ति कुत्रचित्। अतश्च तन्मयं सर्वम् भावयन् भवजिज् जनः॥ १००॥
He (Bhairava) is of the nature of undifferentiated consciousness in all embodied forms. Therefore, those persons who contemplate on all creation pervaded by that consciousness, transcend relative existence.
कामक्रोधलोभमोहमदमात्सर्यगोचरे। बुद्धिं निस्तिमितां कृत्वा तत्तत्त्वमवशिष्यते॥ १०१॥
When lust, anger, greed, delusion, arrogance and jealousy are seen (within), having fixed the mind completely (on these), the underlying tattwa, or essence, alone remains.
इन्द्रजालमयं विश्वं व्यस्तं वा चित्रकर्मवत्। भ्रमद् वा ध्यायतः सर्वम् पश्यतश्च सुखोद्गमः॥ १०२॥
Meditating on the manifest world as imagined or illusive, like a magic show or a painting, and seeing all existence as transient, happiness arises.
न चित्तं निक्षिपेद् दुःखे न सुखे वा परिक्षिपेत्। भैरवि ज्ञायतां मध्ये किं तत्त्वमवशिष्यते॥ १०३॥
O Goddess, the mind should not dwell on pain or pleasure, but the essence that remains in the middle (in between the opposites) should be known.
विहाय निजदेहस्थं सर्वत्रास्मीति भावयन्। दृढेन मनसा दृष्ट्या नान्येक्षिण्या सुखी भवेत्॥ १०४॥
Abandoning consideration for one’s own body, one should contemplate with a firm mind that, ‘I am everywhere’. When this is seen (by means of concentrated insight) one does not see another and thus becomes happy.
घटादौ यच् च विज्ञानम् इच्चाद्यं वा ममान्तरे। नैव सर्वगतं जातम् भावयन् इति सर्वगः॥ १०५॥
Contemplating on that special knowledge, for example, the analogy of the jar, or that the desires, etc. exist not only within me but everywhere, one thus becomes all-pervasive.
ग्राह्यग्राहकसंवित्तिः सामान्या सर्वदेहिनाम्। योगिनां तु विशेषोऽस्ति सम्बन्धे सावधानता॥ १०६॥
The subject-object consciousness is common to everybody. Yogis, however, are especially alert regarding this relationship.
स्ववद् अन्यशरीरेऽपि संवित्तिमनुभावयेत्। अपेक्षां स्वशरीरस्य त्यक्त्वा व्यापी दिनैर् भवेत्॥ १०७॥
Contemplate on consciousness, such as one’s own and even in another’s body as well. Thus abandoning all physical expectation, one becomes all-pervasive in the course of time.
निराधारं मनः कृत्वा विकल्पान् न विकल्पयेत्। तदात्मपरमात्मत्वे भैरवो मृगलोचने॥ १०८॥
O gazelle-eyed one, having free the mind of all supports, one should refrain from all the Vikalpas (thoughts/counter- thoughts). Then, the self becomes one with the supreme Sell in the state of bhairava.
सर्वज्ञः सर्वकर्ता च व्यापकः परमेश्वरः। स एवाहं शैवधर्मा इति दार्ढ्याच् चिवो भवेत्॥ १०९॥
The supreme Lord, who is omnipresent, omniscient and omnipotent, verily, I am lie and 1 have the same shiva- nature. (Contemplating thus with firm conviction, one becomes Shiva.
जलस्येवोर्मयो वह्नेर् ज्वालाभङ्ग्यः प्रभा रवेः। ममैव भैरवस्यैता विश्वभङ्ग्यो विभेदिताः॥ ११०॥
Just as waves arise from water, (lames from lire and light rays from the sun, similarly die waves of bhairava, which produce die different emanations of die universe, are verily my source.
भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा शरीरेण त्वरितम् भुवि पातनात्। क्षोभशक्तिविरामेण परा सञ्जायते दशा॥ १११॥
Whirling the body round and round until it falls on the ground makes the energy causing commotion at once (become static). By dial cessation the supreme slate appears.
आधारेष्व् अथवाऽशक्त्याऽज्ञानाच् चित्तलयेन वा। जातशक्तिसमावेशक्षोभान्ते भैरवं वपुः॥ ११२॥
Being powerless to perceive objects due to ignorance or wrong perception, if one is able to dissolve the mind by absorbing it on the erroneous perception of objects, then at the end of commotion brought about by that absorption, there the form of Bhairava appears.
सम्प्रदायम् इमम् देवि शृणु सम्यग् वदाम्यहम्। कैवल्यं जायते सद्यो नेत्रयोः स्तब्धमात्रयोः॥ ११३॥
Listen, O Devi, as I am telling you about this (mystic) tradition in its entirety. If the eyes are fixed in a steady gaze (without blinking), kaivalya will arise immediately.
सङ्कोचं कर्णयोः कृत्वा ह्यधोद्वारे तथैव च। अनच्कमहलं ध्यायन् विशेद् ब्रह्म सनातनम्॥ ११४॥
Contracting (or closing) the openings of the ears and also the lower opening (reproductive /excretory organs) in the same way, and then meditating on the palace of the anahad (unstruck) sound within, one enters die eternal Brahma.
कूपादिके महागर्ते स्थित्वोपरि निरीक्षणात्। अविकल्पमतेः सम्यक् सद्यस् चित्तलयः स्फुटम्॥ ११५॥
Standing above a deep hole or well and looking steadily downward (into the abyss), the mind becomes entirely free of vikalpas and dissolution immediately manifests.
यत्र यत्र मनो याति बाह्ये वाभ्यन्तरेऽपि वा। तत्र तत्र शिवावास्था व्यापकत्वात्क्व यास्यति॥ ११६॥
Wherever the mind moves, whether outwards or inwards, there the all-pervasive slate of shiva will go.
यत्र यत्राक्षमार्गेण चैतन्यं व्यज्यते विभोः। तस्य तन्मात्रधर्मित्वाच् चिल्लयाद् भरितात्मता॥ ११७॥
Wherever the consciousness leads through the channel of the eyes, by contemplation on that object alone being of the same nature as that of the supreme, absorption of mind and the state of poornatva are experienced.
क्षुताद्यन्ते भये शोके गह्वरे वा रणाद् द्रुते। कुतूहलेक्षुधाद्यन्ते ब्रह्मसत्तामयी दशा॥ ११८॥
At the beginning and end of sneezing, in terror, sorrow or confusion, when fleeing from a battlefield, during (keen) curiosity, or at the onset or appeasement of hunger, that state is the external existence of Brahma.
वस्तुषु स्मर्यमाणेषु दृष्टे देशे मनस् त्यजेत्। स्वशरीरं निराधारं कृत्वा प्रसरति प्रभुः॥ ११९॥
Leave the mind aside when memorable objects of die past, such as one’s country or land arise, making one’s body supportless; then the omnipresent and mighty Lord manifests.
क्वचिद् वस्तुनि विन्यस्य शनैर् दृष्टिं निवर्तयेत्। तज् ज्ञानं चित्तसहितं देवि शून्यालायो भवेत्॥१२०॥
O Goddess, momentarily casting the gaze on some object and slowly withdrawing it with the knowledge and impression of that object, one becomes the abode of the void.
भक्त्युद्रेकाद् विरक्तस्य यादृशी जायते मतिः। सा शक्तिः शाङ्करी नित्यम् भवयेत्तां ततः शिवः॥ १२१॥
That, intuition which emerges from the intense devotion of one who is perfectly detached is known as the Shakti of Shankara. By contemplating regularly on that (shakti), Shiva (is revealed) there.
वस्त्वन्तरे वेद्यमाने सर्ववस्तुषु शून्यता। ताम् एव मनसा ध्यात्वा विदितोऽपि प्रशाम्यति॥ १२२॥
When one perceives a particular object, vacuity is established regarding all other objects. (Contemplating on that (vacuity) verily, even though the particular object is still known or perceived, the mind rests in tranquility.
किञ्चिज्ज्ञैर् या स्मृता शुद्धिः सा शुद्धिः शम्भुदर्शने। न शुचिर् ह्यशुचिस् तस्मान् निर्विकल्पः सुखी भवेत्॥ १२३॥
What people of little understanding believe to be purity is neither pure nor impure to one who has experienced shiva. Nirvikalpa, or freedom from vikalpas, is the real purification by which one attains happiness.
सर्वत्र भैरवो भावः सामान्येष्व् अपि गोचरः। न च तद्व्यतिरेक्तेण परोऽस्तीत्यद्वया गतिः॥ १२४॥
The reality of bhairava dwells everywhere, even in ordinary people. By contemplating thus, “There is nothing other than Him,” one attains the non-dual state (of homogenous awareness).
समः शत्रौ च मित्रे च समो मानावमानयोः॥ ब्रह्मणः परिपूर्णत्वातिति ज्ञात्वा सुखी भवेत्॥ १२५॥
One who makes no distinction between friend and foe, honour and dishonour, knowing Brahman to be full in itself (all pervading), becomes supremely happy.
न द्वेषम् भावयेत्क्वापि न रागम् भावयेत्क्वचित्। रागद्वेषविनिर्मुक्तौ मध्ये ब्रह्म प्रसर्पति॥ १२६॥
One should never think in terms of friendship or enmity. Being free from (this idea) of friend and foe, in between the brahma bhava, or nature of supreme consciousness, blooms.
यद् अवेद्यं यद् अग्राह्यं यच् चून्यं यद् अभावगम्। तत्सर्वम् भैरवम् भाव्यं तदन्ते बोधसम्भवः॥ १२७॥
By contemplating on bhairava as all that which is void and cannot be known, grasped or imagined, at the end realization takes place.
नित्ये निराश्रये शून्ये व्यापके कलनोज्झिते। बाह्याकाशे मनः कृत्वा निराकाशं समाविशेत्॥ १२८॥
Fixing the mind in the outer space, which is eternal, without support, void, omnipresent and beyond estimation or calculation, one enters into the formless, unmanifest dimension.
यत्र यत्र मनो याति तत्तत्तेनैव तत्क्षणम्। परित्यज्यानवस्थित्या निस्तरङ्गस् ततो भवेत्॥ १२९॥
Wherever the mind dwells, casting that aside that very moment, the mind becomes supportless and free from disturbance.
भया सर्वं रवयति सर्वदो व्यापकोऽखिले। इति भैरवशब्दस्य सन्ततोच्चारणाच् चिवः॥ १३०॥
The word Bhairava denotes he who dispels all fear and terror, who howls and cries, who gives all, and who pervades the entire universe (manifest and unmanifest). He who constantly repeats the word bhairava becomes one with Shiva.
अहं ममेदम् इत्यादि प्रतिपत्तिप्रसङ्गतः। निराधारे मनो याति तद्ध्यानप्रेरणाच् चमी॥ १३१॥
At the time of asserting, “1 am,” “This is mine,” and so on, by inspired meditation on Fat (that highest reality), the mind becomes supportless.
नित्यो विभुर् निराधारो व्यापकश्चाखिलाधिपः। शब्दान् प्रतिक्षणं ध्यायन् कृतार्थोऽर्थानुरूपतः॥ १३२॥
Meditating every moment on the words: eternal, omnipresent, supportless, all-pervasive, master of the universe, one attains fulfilment in accordance with their meaning.
अतत्त्वम् इन्द्रजालाभम् इदं सर्वमवस्थितम्। किं तत्त्वम् इन्द्रजालस्य इति दार्ढ्याच् चमं व्रजेत्॥ १३३॥
This world is (illusory) like magic, devoid of any essence. What essence exists in magic? Being firmly convinced of this, one attains peace.
आत्मनो निर्विकारस्य क्व ज्ञानं क्व च वा क्रिया। ज्ञानायत्ता बहिर्भावा अतः शून्यम् इदं जगत्॥ १३४॥
How can there be knowledge or activity of the changeless atman, or self? All external objects are under the control of knowledge. Therefore, this world is void.
न मे बन्धो न मोक्षो मे भीतस्यैता विभीषिकाः। प्रतिबिम्बम् इदम् बुद्धेर् जलेष्व् इव विवस्वतः॥ १३५॥
There is neither bondage nor liberation for me. These scare cowards and are the reflections (projections) of the intellect, just as the sun is reflected in water.
इन्द्रियद्वारकं सर्वं सुखदुःखादिसङ्गमम्। इतीन्द्रियाणि सन्त्यज्य स्वस्थः स्वात्मनि वर्तते॥ १३६॥
All the doors of perception produce pain and pleasure through contact with the senses. Thus, casting aside (the sensory objects) and withdrawing (the senses) within, oneabides in one’s own self.
ज्ञानप्रकाशकं सर्वं सर्वेणात्मा प्रकाशकः। एकम् एकस्वभावत्वात्ज्ञानं ज्ञेयं विभाव्यते॥ १३७॥
Knowledge reveals all and the self of all is the revealer (knower). One should contemplate on the knowledge and the knower as being one and the same.
मानसं चेतना शक्तिर् आत्मा चेति चतुष्टयम्। यदा प्रिये परिक्षीणं तदा तद् भैरवं वपुः॥ १३८॥
O dear one, when the mind, awareness, energy and individual self, this set of four dissolves, then the state of bhairava manifests.
निस्तरङ्गोपदेशानां शतम् उक्तं समासतः। द्वादशाभ्यधिकं देवि यज् ज्ञात्वा ज्ञानविज् जनः॥ १३९॥
O Goddess, I have briefly told you more than one hundred and twelve ways whereby the mind (is rendered still) without any surge of thought, knowing which people become wise.
अत्र चैकतमे युक्तो जायते भैरवः स्वयम्। वाचा करोति कर्माणि शापानुग्रहकारकः॥ १४०॥
One attains the state of bhairava, if established even in one of these (one hundred and twelve dharanas), and by his speech he confers blessings or curses.
अजरामरताम् एति सोऽणिमादिगुणान्वितः। योगिनीनाम् प्रियो देवि सर्वमेलापकाधिपः॥ १४१॥
O Goddess, (by virtue of even one of these dharanas) the sadhaka becomes free from old age, attains immortality and is endowed with siddhis, such as anima, etc. He becomes the darling of all yoginis and master of all siddhas.
जीवन्न् अपि विमुक्तोऽसौ कुर्वन्न् अपि न लिप्यते। श्री देवी उवाच। इदं यदि वपुर् देव परायाश्च महेश्वर॥ १४२॥
The Goddess said, O great Lord, if this is the nature of the supreme reality, he is liberated while living and not affected (by the activities of the world) while active.
एवमुक्तव्यवस्थायां जप्यते को जपश्च कः। ध्यायते को महानाथ पूज्यते कश्च तृप्यति॥ १४३॥
Thus (Devi) said, O great Lord, (tell me) in the established order, who would be invoked and what would be the invocation? Who is to be worshipped or meditated upon and who is to be gratified by that worship?
हूयते कस्य वा होमो यागः कस्य च किं कथम्।
(Devi continues), to whom should the invocations be made; to whom should oblations be offered during the sacrifice and how should these be done? Sri Bhairava said, O gazelle-eyed one, these acts are verily the gross forms of worship.
श्री भैरव उवाच। एषात्र प्रक्रिया बाह्या स्थूलेष्व् एव मृगेक्षणे॥ १४४॥
Sri Bhairava said, O gazelle-eyed one, these acts are verily the gross forms of worship.
भूयो भूयः परे भावे भावना भाव्यते हि या। जपः सोऽत्र स्वयं नादो मन्त्रात्मा जप्य ईदृशः॥ १४५॥
Contemplate on the thought of being in the supreme consciousness again and again; this is also japa. That self- sound (which is spontaneously produced) is verily the soul of mantra. Japa is done like this.
ध्यानं हि निश्चला बुद्धिर् निराकारा निराश्रया। न तु ध्यानं शरीराक्षिमुखहस्तादिकल्पना॥ १४६॥
When the intellect becomes steady, formless and without any support, meditation is verified. Imagination of the form of the divine with a body, eyes, mouth, hands, etc. is not meditation.
पूजा नाम न पुष्पाद्यैर् या मतिः क्रियते दृढा। निर्विकल्पे महाव्योम्नि सा पूजा ह्यादराल् लयः॥ १४७॥
Offering of flowers, etc. is not pooja, or worship, but making one’s mind steady in mahakasha, the great void, (and thoughtless) in nirvikalpa is worship indeed. From such reverence, dissolution (of mind) takes place.
अत्रैकतमयुक्तिस्थे योत्पद्येत दिनाद् दिनम्। भरिताकारता सात्र तृप्तिर् अत्यन्तपूर्णता॥ १४८॥
By being established in any one of the practices (described) here, whatever (experience) is produced, develops clay by day until the state of absolute fullness or satisfaction is attained.
महाशून्यालये वह्नौ भूताक्षविषयादिकम्। हूयते मनसा सार्धं स होमश् चेतनास्रुचा॥ १४९॥
The real oblation is (made) when the elements and sense perceptions along with the mind are poured as oblation into the fire of the great void (i.e. bhairava or supreme consciousness) using the consciousness as a ladle.
यागोऽत्र परमेशानि तुष्टिर् आनन्दलक्षणा। क्षपणात्सर्वपापानां त्राणात्सर्वस्य पार्वति॥ १५०॥
O supreme Goddess, Parvati, here the sacrifice characterized by bliss and satisfaction becomes the saviour of all by the destruction of all sins.
रुद्रशक्तिसमावेशस् तत्क्षेत्रम् भावना परा। अन्यथा तस्य तत्त्वस्य का पूजा काश्च तृप्यति॥ १५१॥
The greatest contemplation is that state where one is absorbed into the shakti of Rudra. (Otherwise how can there be any worship of that element and who is it dial is to be gratified?
स्वतन्त्रानन्दचिन्मात्रसारः स्वात्मा हि सर्वतः। आवेशनं तत्स्वरूपे स्वात्मनः स्नानम् ईरितम्॥ १५२॥
One’s own self is verily the all-pervasive bliss of freedom and the essence of consciousness. Absorption into that nature or form of one’s own self is said to be the real bath (purification).
यैर् एव पूज्यते द्रव्यैस् तर्प्यते वा परापरः। यश्चैव पूजकः सर्वः स एवैकः क्व पूजनम्॥ १५३॥
The oblations and the worshipper by which verily the transcendental reality is worshipped are all one and the same. What then is this worship?
व्रजेत्प्राणो विशेज् जीव इच्चया कुटिलाकृतिः। दीर्घात्मा सा महादेवी परक्षेत्रम् परापरा॥ १५४॥
Prana and apana, having moved swiftly in a distinct direction, by the wish of kundalini, that great goddess stretches (elongates herself) and becomes the supreme place of pilgrimage of both manifest and unmanifest.
अस्यामनुचरन् तिष्ठन् महानन्दमयेऽध्वरे। तया देव्या समाविष्टः परम् भैरवमाप्नुयात्॥ १५५॥
One who pursues and abides in this sacrifice which is full of supreme bliss attains by (the grace of) that goddess the supreme state of bhairava.
सकारेण बहिर्याति हकारेण विषेत् पुनः। हंसहंसेत्यमुं मन्त्रं जीवो जपति नित्यशः॥१५६॥
The breath is exhaled with the sound ‘Ha’ and inhaled again with the sound ‘Sa’. Thus the individual always repeats this particular mantra Hamsa.
(This verse is found only in some versions of Vijnana Bhairava; hence it is given as 155b)
षट्शतानि दिवा रात्रौ सहस्राण्येकविंशतिः। जपो देव्याः समुद्दिष्टः सुलभो दुर्लभो जडैः॥ १५६॥
This japa of the Devi which was previously indicated, (being repeated) twenty-one thousand six hundred times during the day and night, is easily available and is difficult only for the ignorant.
इत्येतत्कथितं देवि परमामृतम् उत्तमम्। एतच् च नैव कस्यापि प्रकाश्यं तु कदाचन॥ १५७॥
O Goddess, this most excellent teaching, which is said to lead to the immortal state, should verily not be revealed to anybody.
परशिष्ये खले क्रूरे अभक्ते गुरुपादयोः। निर्विकल्पमतीनां तु वीराणाम् उन्नतात्मनाम्॥ १५८॥
These teachings should not be disclosed) to other disciples, to those who are evil and cruel, or to those who have not surrendered to the feet of the guru. (They should only be revealed) to advanced souls, who are self-controlled and whose minds are devoid of vikalpas.
भक्तानां गुरुवर्गस्य दातव्यं निर्विशङ्कया। ग्रामो राज्यम् पुरं देशः पुत्रदारकुटुम्बकम्॥ १५९॥
Those devotees of the guru, who are without the slightest doubt or hesitation, O gazelle-eyed one, having renounced son, wife, relatives, home, village, kingdom and country, should be accepted for initiation.
सर्वम् एतत्परित्यज्य ग्राह्यम् एतन् मृगेक्षणे। किम् एभिर् अस्थिरैर् देवि स्थिरम् परम् इदं धनम्।
The (worldly accoutrements) are all temporary, O Goddess, but this supreme wealth is everlasting.
प्राणा अपि प्रदातव्या न देयं परमामृतम्॥ १६०॥
One may give up even one’s prana (life energy), but this teaching which is the supreme nectar should never be given up.
श्री देवी उवाच। देवदेव माहदेव परितृप्तास्मि शङ्कर।
The auspicious goddess said: O great Lord Shankara, God of gods, I am now fully satisfied.
रुद्रयामलतन्त्रस्य सारमद्यावधारितम्॥ १६१॥ सर्वशक्तिप्रभेदानां हृदयं ज्ञातमद्य च।
Today I have understood the quintessence of Rudrayamala Tantra and also the heart (innermost core) of all the different shaktis.
इत्युक्त्वानन्दिता देवि कण्ठे लग्ना शिवस्य तु॥ १६२॥
Thus saying, the goddess being steeped in delight embraced Shiva.
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