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विज्ञान भैरव तंत्र के सूत्र

माता पार्वती के यह प्रश्न पूछने पर की ” ईश्वर कौन है” और “क्या है ?” भगवन शंकर उन्हें सीधे उत्तर न देके निम्नलिखित विधियां बताते है, जोकि ११२ है। किसी न किसी रूप में, सभी ग्रन्थ, धर्मो में इन्ही ११२ विधियों का प्रयोग है । मन के रूपांतरण की श्रेष्ठ विधियों को मानव मात्र के कल्याण के लिए भगवान् शिव ने माता पार्वती के माध्यम से प्रकाशित किया . इन विधियों के माध्यम से पुराने कर्मों की सीमाओं के बंधन को शिथिल किया जा सकता है. इन विधियों के महत्त्व को जानने के लिए बुद्धि के प्रयोग की अपेक्षा अभ्यास अधिक महत्वपूर्ण है . इसका कारण यह है कि जब तक बुद्धि को मन से स्वतंत्र नहीं किया जाता वह स्वतंत्र रूप से सही निर्णय नहीं ले सकती. इसलिए माता पार्वती के इश्वर सम्बन्धी प्रश्न पूछने पर प्रभु शिव प्रश्न का सीधे उत्तर ना देकर वह क्रियाएं बताते है, जिनका अभ्यास कर इश्वर को अनुभव किया जा सकता है.

तंत्र हमारे अस्तित्व से जुड़ी हर चीज का उपयोग कर उससे पार होने में सहायता करता है चाहे वह कामना, भय, क्रोध , नींद, कल्पना , श्वास अथवा छींक जैसी शारीरिक क्रिया ही क्यों ना हो . और हर भावना अथवा क्रिया में महत्वपूर्ण है सजग रहना . सजगता ही चेतना की गहराई को नापने का महत्वपूर्ण साधन है. जब यह साधन साध जाता है तो आत्म ज्ञान स्वयं प्रकाशित हो जाता है . जागृति के लिए महायोगी शिव द्वारा कथित ११२ विधियां इस प्रकार है :-

१) दो श्वासो के मध्य ध्यान केंद्रित करे। श्वासो की अंदर जाती और बाहर आती प्रकिया को सजगरूप से देखे।
२) जब श्वास नीचे से ऊपर की ओर जाती है और ऊपर से नीचे की ओर आती है, तो इस संधि काल को देखे।
३) जब अंतः श्वास और वाह्य श्वास एक दूसरे से मिलते है, उस प्रक्रिया के केंद्र को स्पर्श करे।
४) जब प्रश्वास पूरी तरह बाहर हो या पूरी तरह भीतर हो, उसके मध्य के अंतराल पर ध्यान केंद्रित करे।
५) भ्रकुटी के मध्य स्थान अर्थात आज्ञाचक्र पर ध्यान केंद्रित करे और प्राणऊर्जा को सहस्त्रारचक्र में भरे।
६) सांसारिक कार्य करते हुए , ध्यान को दो श्वासो के मध्य केंद्रित करे।
७) ललाट के मध्य श्वास को स्थिर करे। इस अभ्यास से प्राणऊर्जा हृदय में पहुंचती है, जिससे स्वयं के स्वप्न और मृत्यु पर अधिकार हो जाता है।
८) पूर्ण भक्तिभाव के साथ दो श्वासो की संधि के समय एकाग्र होकर ज्ञाता को जान लो।
९) ऐसे लेट जाए जैसे मृत हो, क्रुद्ध भाव में स्थिर हो जाये अथवा बिना पलक झपकाए घूरे या कुछ मुँह में लेके चूसे और उस प्रक्रिया मैं विलीन हो जाये।
१०) प्रेम के स्पर्शमय क्षणों में ऐसे प्रवेश करे, जैसे वह नित्यअक्षय हो।
११ )जब चीटियों के रेंगने का अनुभव हो, तो अपने इन्द्रियॉ के द्वार बंद करले। *
१२) जब शय्या पर हो तो मन के पास जाकर भार शून्य हो जाए
१३) मोर पंख के पांच रंग के वरतुल में पांचो इन्द्रियॉ की कल्पना करनी है , और यह भाव करना है कि यह पांचो रंग भीतर किसी बिंदु पर मिल रहे है.
१४) अपने पूरे ध्यान को मेरुदण्ड के मध्य, कमलतन्तु सी इस कोमल स्नायु में स्थित करो और उसमें समा जाओ .
१५) सिर के सात द्वारा को (आँख,कान , नाक और मुख ) आँखों के बीच का स्थान (आज्ञाचक्र) सर्व ग्राही हो जाता है .
१६) जब इंद्रियां हृदय में विलीन हो, तब कमल के केंद्र पर पहुंचो (सहस्त्रार)।
१७) मन को भूल कर मध्य में रहो – जब तक (मन स्थिर न हो जाये).
१८) किसी भी विषय को प्रेम पूर्वक देखे , दूसरे विषय पर मत जाये,विषय के मध्य में – आनंद.
१९) पाँव या हाथ का सहारा लिए बिना नितम्बों पर बैठे- अचानक केंद्रित हो जाएंगे।
२०) किसी चलते वाहन में जब शरीर हिलता है तो लयबद्ध डोलकर अनुभव को प्राप्त हो.
२१) शरीर के किसी भाग को सुई से भेदो, उस पीड़ा में प्रवेश करो और आतंरिक शुद्धता को सिद्ध करो.
२२) अतीत की घटना का स्मरण होते समय चेतना को ऐसी जगह रखे जिससे शरीर को भी साक्षी रख सके और घटना को भी.
२३) अपने सामने किसी विषय का अनुभव करे और अन्य विषयों की अनुपस्थिति को अनुभव करे ,फिर विषय भाव और अनुपस्थिति के भाव को भी छोड़ दे और आत्मा को उपलब्ध हो जाये.
२४) जब किसी व्यक्ति के पक्ष या विपक्ष में कोई भाव उठे तो उसे, उस व्यक्ति पर आरोपित नहीं करे .
२५) जैसे ही कुछ करने की वृत्ति हो रुक जाये .
२६) जब कोई कामना उठे तो उसको देखो और अचानक उसे छोड़ दो.
२७) तब तक घुमते रहे जब तक पूरी तरह थक ना जाये, फिर जमीन पर गिरकर , गिरने में पूर्णता का अनुभव करे .
२८) शक्ति या ज्ञान से धीरे- धीरे वंचित होने कि कल्पना करे, और वंचित किये जाने के समय में अतिक्रमण करे (दृष्टा बन जाए).
२९) भक्ति मुक्त करती है .
३०) आँखे बंद करके, अपने अंदर अस्तित्व को विस्तार से देखो, इस प्रकार अपने सच्चे अस्तित्व को देख लो.
३१) एक पात्र / कटोरी को उसके किनारों और सामग्री के बिना देखो और आत्मबोध को प्राप्त हो जाओ .
३२) किसी सूंदर व्यक्ति या सामान्य विषय को ऐसे देखो , जैसे उसे पहली बार देख रहे है .
३३ ) बादलों के पास नीले आकाश को देखते हुए शांति और सौम्यता को उपलब्ध हो .
३४) जब परम उपदेश दिया जा रहा हो, अविचल , अपलक आँखों से उसे श्रवण करो और मुक्ति को उपलब्ध हो .
३५) किसी गहरे कुएं के किनारे खड़े होकर उसकी गहराईओं को निरन्तर देखते रहो जबतक विस्मय मुग्ध न हो जाओ .
३६) किसी विषय को देखो फिर धीरे – धीरे उससे अपनी दृष्टि हटा लो और फिर अपने विचार भी उससे हटा लो .
३७) दृष्टि पथ में संस्कृत वर्णमाला के अक्षरों की कल्पना करो,पहले अक्षरों की भाँती , फिर सूक्ष्मतर ध्वनि की भाति, फिर सूक्ष्मतर भाव की भाति, और फिर उसे छोड़ कर मुक्त हो जाओ .
३८) जलप्रपात की अखण्ड ध्वनि के केंद्र में स्नान करो.
३९) ॐ मंत्र जैसी ध्वनि का मंद मंद उच्चारण करो .
४०) किसी भी वर्ण के शाब्दिक उच्चारण  के आरंभ और क्रमिक परिष्कार के समय जागृत हो .
४१) तार वाले वाद्यों को सुनते हुए, उनकी सयुक्त केंद्रित ध्वनि को सुनो और सर्वव्यापक हो जाओ .
४२) किसी ध्वनि का उच्चारण ऐसे करो कि वह सुनाई दे,फिर उस उच्चारण को मंद से मंद किये जाओ , की स्वयं को भी सुनाने के लिए प्रयत्न करना पड़े, और भाव, मौन लयद्धता में लीन होता जाये .
४३) मुँह को थोड़ा खुला रखते हुए मन को जीभ के बीच में स्थिर करे , अथवा जब स्वास अंदर आये तब हकार् ध्वनि का अनुभव करो .
४४) अ और म के बिना ॐ ध्वनि पर (अर्थात केवल उ की ध्वनि) पर मन केंद्रित करो .
४५) अः से अंत होने वाले किसी शब्द का उच्चारण मन में करो .
४६) कानो को दबाकर, गुदा को सिकोड़कर बंद करो और ध्वनि में प्रवेश करो .
४७) अपने नाम की ध्वनि में प्रवेश करो और उस ध्वनि के द्वारा सभी ध्वनियो में .
४८) आलिंगन के आरम्भ के क्षणों की उत्तेजना के भाव पर मन को केंद्रित करो .
४९) प्रणय आलिंगन के समय शरीर में हो रहे परिवर्तन जैसे कंपन के साथ आत्मसाथ हो जाए।
५०) मानसिक रूप से सम्भोग की प्रक्रिया का स्मरण भी ऊर्जा के रूपांतरण में महत्वपूर्ण होता है ।
५१) प्रियंजन अथवा मित्र के बहुत समय बाद होने वाले हर्ष के प्रसन्नता में लीन हो जाए ।
५२) भोजन करते हुए या पानी पीते हुए, भोजन और पानी के स्वाद में समाहित हो जाओ ।
५३) अपने होने के प्रति सजग हो जाओ , हर कर्म करते हुए जैसे गाते हुए , खाते हुए और स्वाद लेते हुए आपने अस्तित्व का बोध बनाए रखे, तब शास्वत प्रगट होगा ।
५४) जिन जिन कर्मों में संतोष मिलता है , मिल रहे संतोष के साथ रहो और संतुष्टता का अनुभव करो ।
५५) निद्रा और जागृत अवस्था के मध्य बिंदु पर चेतना को टिकाने से आत्मा प्रकाशित करो ।
५६) माया की भ्रांतियाँ छलती है , रंग भी सीमित करते है, वस्तुतः जो विभाज्य दीखता है वह भी अविभाज्य है .
५७) तीव्र कामना की स्थिति में मन को स्थिर रखते हुए, उद्विग्नता से दूर रहे ।
५८) यह जगत चित्रपट / चित्रगति जैसा है , सुखी होने के लिए उसे इसी भांति देखो ।
५९) ना ही सुख में, ना ही दुःख में , वरन दोनो के मध्य में चेतना को स्थिर करो ।
६०) विषय और वासना जैसी दूसरों में है वैसी ही मुझमें भी है, इस तथ्य को स्वीकार करके उन्हें रूपांतरित होने दो ।

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