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विपासना दोहे - मन

Vipasana Dohe- Dharma

वाणी तो वश में भली वश में भला शरीर,
जो मन को वश में करे वो ही सच्चा वीर ।

मन ही दुर्जन मन सुजन मन बैरी मन मीत,
मन सुधरे सब सुधरे हैं कर मन पवन पुनीत ।

मन बंधन का मूल है मन है मुक्ति उपाय,
विकृत मन जकड़ा रहे निर्विकार खुल जाए ।

मन चंचल मन चपल है भागे चारों ओर ,
सांस डोर से बाँध कर रोक रखे एक ठोर ।

जितना बुरा न कर सके दुश्मन दोषी दोय,
अधिक बुरा यह मन करे जब मन मैला होए ।

जितना भला न कर सके माँ बापू सब कोए,
अधिक भला निज मन करे जब मन निर्मल होए ।

मन के करम सुधार ले मन ही प्रमुख प्रधान,
कायक वाचक कर्म तो मन की ही संतान ।

जो चाहे बंधन खुलें मुक्ति दुःखों से होए,
वश में करले चित्त को, चित के वश मत होए।

चित्त से चित्त का दमन करे, चित्त से चित्त सुधार
चित्त स्वच्छ कर चित्त से खोल मुक्ति के द्वार ।

चित्त की जैसी चेतना फल वैसा ही होए,
दुर्मन का फल दुःख सुखद सुमन का होए ।

अपने अपने कर्म के हम ही तो करतार,
अपने सुख के दुःख के हम ही जिम्मेदार ।

जब तक मन में राग है जब तक मन में द्वेष,
तब तक दुःख ही दुःख है मिटे न मन का क्लेश ।

जितना गहरा राग है उतना गहरा द्वेष है
जितना गहरा द्वेष है उतना गहरा क्लेश ।

राग से जागे रोग है द्वेष से जागे दोष
मोह से जागे मूढ़ता धर्म से जागे होश।

क्षण क्षण जागे धर्म ही, क्षण क्षण जागे होश
क्षण भर भी ज्ञान में रहें नहीं बेहोश।

क्षण क्षण बीतते बीतते जीवन बीता जाए
क्षण क्षण का उपयोग कर बीता क्षण नहीं आये।

दृश्य और अदृश्य सब प्राणी सुखिया होए ,
निर्मल हो निर बैर हों सभी निरामय होयें।

जल के थल के गगन के प्राणी सुखिया होयें,
निर्भय हों निरबैर हों सभी निरामय होए।

सुख चाहे संसार में दुखिया रहे न कोए ,
जन जन मन जागे धर्म जन जन सुखिया होए ।
जन जन मंगल होए सबका मंगल होये।

मानव का जीवन मिला धर्म मिला अनमोल ,
अब श्रद्धा से यत्न से मन की गाँठें खोल।

मानव जीवन रत्न सा किया व्यर्थ बर्बाद,
चर्चा कर ली धर्म की चाख न पाया स्वाद।

जीवन सारा खो दिया ग्रन्थ पढंत पढंत ,
तोते मैना की तरह नाम रटंत रटंत।

कितने दिन यूँही गए करते वाद विवाद ,
अवसर आया धर्म का चाख मुक्ति का स्वाद।

दुर्लभ जीवन मनुज का दुर्लभ धर्म मिलाप ,
धन्य भाग्य दोनों मिले दूर करें दुःख ताप।

जीवन सारा खो दिया करते बुद्धि विलास ,
बुद्धि विलासों से भला किसकी बुझती प्यास।

चर्चा ही चर्चा करे धारण करें न कोए ,
धर्म बिचारा क्या करे धारे ही सुख होए।

धारण करे तो धर्म है वरना कोरी बात ,
सूरज उगे प्रभात है वरना काली रात।

आते जाते सांस पर रहे निरंतर ध्यान ,
कर्मों के बंधन कटें होये परम कल्याण।

सांस देखते देखते मन अविचल हो जाए ,
अविचल मन निर्मल बने सहज मुक्त हो जाये।

सांस देखते देखते सत्य प्रकट हो जाये ,
सत्य देखते देखते परम सत्य दिख जाये।

पल पल क्षण क्षण होश रखे अपना कर्म सुधार ,
सुख से जीने की कला अपनी ओर निहार।

क्षण क्षण प्रतिक्षण सजग रह अपना होश संभाल ,
राग द्वेष की प्रतिक्रिया टाल सके तो टाल।

बीते क्षण तो चल दिए आने वाले दूर ,
इस क्षण में जो भी जिए वो ही साधक शूर।

समय बड़ा अनमोल है समय न आत बिकाय ,
तीन लोक सम्पद दिए बीता क्षण न पाए।

बीते क्षण को याद करे मत बिरथा अकुड़ाए ,
बीता धन तो मिल सके बीता क्षण न आए।

भूतकाल व्याकुल करे या भविष्य भरमाय ,
वर्तमान में जो जिये तो जीना आ जाए।

प्रतिक्षण अंतरतप चले प्रतिक्षण रहे निष्पाप ,
प्रतिक्षण बंधन मुक्त हो दूर करे भव ताप।

तप रे तप रे मानवी तपे ही निर्मल होए ,
स्वर्ण अग्नि में जो तपे तप कर कुंदन होए।

नए कर्म बांधे नहीं क्षीण पुरातन होए ,
क्षण क्षण जाग्रत ही रहे सहज मुक्त है सोय।

देख देख कर चित्त की ग्रंथि सुलझती जाए ,
जागे विमल विपस्सना चित्त मुक्त हो जाये।

बाहर बाहर भटकते दुखिया रहे जहान ,
अंतर मन में खोज ले सुख की खान खदान।

होश जगे जब धर्म का होवे दूर प्रमाद
स्व दर्शन करते हुए चखे मुक्ति का स्वाद।

तृष्णा जड़ से खोद करे अनासक्त बन जाएं ,
भव बंधन से छूटन का यही एक उपाय।

भोगत भोगत भोगते बंधन बंधते जाएं ,
देखत देखत देखते बंधन खुलते जाएं।

ऐसी जगे विपस्सना समता चित्त समाय ,
एक एक कर पाप की परत उतरती जाए।

ज्यों ज्यों अंतर जगत में समता छाती जाए
काया वाणी चित्त की कर्म सुधरते जाएं।

बाहर भीतर एक रस सरल स्वच्छ व्यवहार ,
कथनी करनी एक सी यही धर्म का सार।

कपट रहे न कुटिलता रहे न मिथ्याचार ,
शुद्ध धर्म ऐसा जगे जगे स्वच्छ व्यवहार।

शीलवान के ध्यान से प्रज्ञा जागृत होये ,
चित्त की समता स्थिर रहे उत्तम मंगल होये।

जिसके मन प्रज्ञा जगे होये विनम्र विनीत ,
जिस डाली पर फल लगें झुकने की ही रीत।

धन आये तो बाँवरे मत कर गर्व गुमान ,
यह बालू की भीत है इसका क्या अभिमान।

मत कर मत कर बाँवरे अहंकार अभिमान ,
बड़े बड़ों का मिट गया जग से नाम निशान।

सुख आये नाचे नहीं दुःख आये नहीं रोए ,
दोनों में समरस रहे धर्मवंत है सोए।

सुख दुःख आते ही रहें जो आएं दिन रैन ,
तू क्यों खोए बावरा अपने मन का चैन।

अनचाहे होवे कभी मनचाही भी होए ,
धूप छाय की जिन्दगी क्या नाचे क्या रोए।

जीवन में आते रहें पतझड़ और बसंत ,
चित विचलित होवे नहीं मंगल जगे अनंत।

कभी बाग वीरान है कभी बसंत बहार ,
समता में प्रमुदित रहे संत निहार निहार।

तन सुख धन सुख मान सुख भले ध्यान सुख होए ,
पर समता सुख परम सुख ऐसा अन्य न कोए।

अंतर में डुबकी लगी भीग गए सब अंग ,
धर्म रंग ऐसा चढ़ा चढ़े न दूजा रंग।

जैसे मेरे दुःख कटे सबके दुःख कट जाएं ,
जैसे मेरे दिन फिरे सबके दिन फिर जाएं।

मेरे सुख में शान्ति में भाग सभी का होए,
इस मंगलमय धर्म का लाभ सभी को होए।

इस दुखियारे जगत में सुखिया दिखे न कोए ,
शुद्ध धर्म जग में जगे जन जन सुखिया होए।

शुद्ध धर्म इस जगत में पुनः प्रतिष्ठित होए ,
जन जन का होये भला जन जन मंगल होए।

जग में तो बहती रहे धर्म गंग की धार ,
जन जन का होवे भला हो जन जन उपकार।

भला होये इस जगत का सुखी होएं सब लोग ,
दूर होएं दरिद्र दुःख दूर होएं सब रोग।

बरसे बरखा समय पर दूर रहे दुष्काल ,
शासन होये धर्म का लोग होएं खुशहाल।

शासन में जागे धर्म उखड़े भ्रष्टाचार ,
धनियों में जागे धर्म स्वच्छ होये व्यापार।

जन जन में जागे धर्म जन जन सुखिया होए ,
जन मन के दुखड़े मिटें जन जन मंगल होए।

दुखियारे दुःख मुक्त हों, भय त्यागें भयभीत ,
द्वेष छोड़ कर लोग सब, करें परस्पर प्रीत।

द्वेष और दुर्भाव का रहे न नामोनिशान ,
स्नेह और सद्भाव से भर ले तन मन प्राण।

दूर रहे दुर्भावना द्वेष होएं सब दूर ,
निर्मल निर्मल चित्त में प्यार भरे भरपूर।

ज्यों इकलौते पूत पर उमड़े माँ का प्यार ,
क्यों प्यारा लगता रहे हमें सकल संसार।

दुखी देख करुणा जगे, सुखी देख मन मोद ,
मंगल मैत्री से भरें, अंतर हों ओत परोत।

दृश्य और अदृश्य के प्राणी सुखिया होए,
निर्मल हो निरबैर हों सभी निरामय होए।

जल के थल के गगन के प्राणी सुखिया होएं ,
निर्भय हों निर्बैर हों सभी निरामय होएं।

सुख चाहें संसार में दुखिया रहे न कोय ,
जन जन मन जागे धर्म, जन जन सुखिया होये।

सुख व्यापे इस जगत में दुखिया रहे न कोय ,
जन जन मन जागे धर्म, जन जन सुखिया होये।

जागो लोगों जगत के बीती काली रात,
हुआ उजाला धर्म का मंगल हुआ प्रभात ।

आओ मानव मानवी चलें धर्म के पंथ ,
इस पथ चलते बुद्ध जन इस पथ चलते संत।

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